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________________ ३८२ ज्ञानमार को अच्छी-बुरी भावनाओं का असर तुम पर पड़ता है और अच्छी-बुरी भावनाओं के अनुसार राग-द्वेष को भी उत्पत्ति होती है । तब भला तुम्हें योगी कौन कहेगा ? कहने का तात्पर्य यही है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से तुम निरपेक्ष बनो । पुद्गल निरपेक्ष बने बिना भवसागर पार नहीं कर सकोगे; तुम्हारी मानसिक पवित्रता नहीं बनी रहेगी, चित्त की स्वस्थता टिकेगी नहीं और सम्यगज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना में तल्लीन नहीं रह सकोगे । तुम संसार तजकर साधु बने, मोह छोड़कर मुनि बने और अंगना तजकर अणगार बने | तुमने क्या नहीं किया ? कई अपक्षायें तुमने पहले ही त्याग दी हैं, फिर भी अब तम्हें मानसिक भूमिका पर बहुत कुछ त्याग करना है । स्थूल त्याग से सूक्ष्म त्याग की ओर गति करना है । तुमने आज तक जो त्याग किया है, उसमें हो संतुष्ट न रहो और ना ही इसे अपनी कल्पना-सृष्टि में कायम रखो। अभी मंजिल बहुत दूर है । अतः पुद्गल नियंत्रण में से तम्हें सर्वथा मुक्त होना है। यह न भूलो कि यह शरीर भी पौगलिक है । जहाँ इसके आघिपत्य से भी स्वतंत्र बनना है, तो अन्य पौदगलिक पदार्थों की बात ही कहाँ है ? जिन पोदगलिक पदार्थों का साथ अनिवार्य है, उनकी संगति में भी, उसका तुम पर नियत्रण नहीं होना चाहिए। पुदगल पर तुम्हारा नियंत्रण प्रस्थापित कर, उससे निरपेक्ष बने रहो, तो ही ज्ञानानंद में गाते लगा सकोगे । विमात्र दोपको, गच्छेत् निर्वातस्थानसंनिभः । निष्परिग्रहतास्थैर्य , धर्मोपकरणरपि ॥७॥१६६।। अर्थ :- ज्ञ न मात्र का दीपक, पवन रहित स्थान जैसे धर्म के उपकरणों द्वारा भी परिग्रह-परित्याग-स्वरुप स्थिरता धारण करता है । विवेचन : दीपक ! दोये में धो भरा हआ है और कपास की बत्ती है। दीया टिमटिमाता है, उसकी लौ स्थिर है, हवा का काई झोंका नहीं और प्रकाश में कोई अस्थिरता नहीं । वह स्थिर है और प्रकाशमान है। विश्व के तत्त्वचिन्तकों ने, दार्शनिकों ने और महर्षियों ने ज्ञान को दीपक कोउप मा दी है। स्थूल जगत में जिस तरह दीप प्रकाश की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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