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निःस्पृहता
भी जोड दें। 'निरपेक्ष आत्मा प्रायः दुष्कर दुस्तर भव-समुद्र से तैर जाती है ।' हमेशा नि:स्पृहता से प्राप्त महासुख का अनुभव करने वाली प्रात्मा दु:खमय भवोदधि को पार कर परम सुख.... अनंत सुख की अधिकारी बनती है ! नि:स्पृहता की यह अंतिम सिद्धि है ! अथवा यों कहे तो अतिशयोक्ति न होगी की अंतिम सिद्धि का प्रशस्त राजमार्ग निःस्पृहता है !
निरंतर स्पहा के वशीभूत हो, प्राप्त सुख के बजाय उस स्पृहा के त्याग से प्राप्त किया हुआ सुख चिरस्थायी, अनुपम और निर्विकार है !' प्रस्तुत तथ्य में आस्था रख कर निःस्पहता के महामार्ग पर जोव को गतिमान होना चाहिए ।
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