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________________ नियाग [ यश ] ४२६ करनी चाहिए ! योग्यता प्राप्त किये बिना वे ब्रह्मयज्ञ नहीं कर सकते । और वह योग्यता है मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों की । 'न्यायसंपन्न - वैभव' से लगाकर 'सौभ्यता' - पर्यंत मार्गानुसारी के पैंतीस गुरणों से मानव-जीवन सुरभित होना चाहिए। तभी वह ब्रह्मयज्ञ करने का अधिकारी है । गृहस्थ - जीवन में थोड़े-बहुत प्रमाण में हिंसादि पाप अनिवार्य होते हैं । फिर भी अगर जीवन मार्गानुसारी है तो वह ब्रह्मयज्ञ कर सकता है ! उसका ब्रह्मयज्ञ है वीतराग का पूजन-अर्चन, सुपात्रदान और श्रमण - सेवा | हालाँकि इस तरह का ब्रह्मयज्ञ करने से दो प्रश्न उपस्थित होते हैं ! लेकिन उसका सरल / सहज भाव से समाधान करने से और उसे मान्य करने से मन निःशंक बनता है ! प्रश्न :- परमात्म-पूजन या सुपात्र दान, साथ ही साधुसेवा और सार्घार्मिकभक्ति में राग अवश्यम्भावी है जबकि जिनेश्वरदेव ने राग को हेय कहा है, तब परमात्म पूजनादि स्वरुप ब्रह्मयज्ञ भला उपादेय कैसे सम्भव है ? समाधान :- राग दो प्रकार का होता है : प्रशस्त और अप्रशस्त । नारी, धनसम्पदा, यश-वैभव और शरीर जैसे पदार्थों के प्रति जो राग होता है वह अप्रशस्तराग कहा गया है ! जबकि परमात्मा, गुरू और घमं विषयक राग प्रशस्त - राग कहलाता है । अप्रशस्त राग से मुक्ति पाने हेतु प्रशस्त राग का अवलंबन ग्रहण करना ही पड़ता है । प्रशस्त राग के दृढ होने पर अप्रशस्त राग की शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती जाती है। प्रशस्त - राग में पाप - बंघन नहीं होता ! अतः जिन जिनेश्वर देवने प्रशस्त राग को हेय बताया है, वे ही जिनेश्वर भगवंत ने प्रशस्त राग को उपादेय कहा है । यह सर्व सापेक्षदृष्टि की देन है ! प्रश्न :- माना कि प्रशस्त - राग उपादेय है, लेकिन परमात्म-पूजन में प्रयोजित जल, पुष्प, धूप, दीपादि पदार्थों के उपयोग से हिंसा जो होती है, तब ऐसी हिंसक - क्रिया का अर्थ क्या है ? साथ ही हिंसक क्रियाओं से युक्त अनुष्ठान को 'ब्रह्मयज्ञ' कैसे मान लें ? समाधान :- हालांकि परमात्मा की द्रव्य - पूजा में 'स्वरूपहिंसा' संभवित है । लेकिन अनेक प्रारम्भ - समारम्भ में रत गृहस्थ के लिए द्रव्य - पूजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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