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ज्ञानसा
वेदोक्तत्वान् मन:शुद्धपा कर्मयज्ञोऽपि योगिनः!
ब्रह्मयज्ञ इतिच्छन्तः श्येनयागं त्यजन्ति किम् ?॥३॥२१॥ अर्थ : "वेदों में कहा गया होने से मनः शुद्धि द्वारा किया गया कर्मयज्ञ
भी ज्ञानयोगी के लिए ब्रह्म यज्ञ-स्वरुप है ।" ऐसी मान्यतावाले
भला 'श्येनयज्ञ' का त्याग क्यों करते है ? दिवेचन : 'वेदोक्त है अतः सच्चा', यह मान्यता कैसे स्वीकार की जाए ? भले ही मनःशुद्धि हो और सत्त्वशुद्धि भी हो, फिर भी ऐसा कर्मयज्ञ कदापि उपादेय नहीं है, जिस में घोर हिंसा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ! और जिस में अज्ञानता की दृष्टि रही हुई है !
वेदोक्त यज्ञ के आयोजकों से कोई प्रश्न करें कि, 'यदि हम मानसिक-शुद्धि सह 'श्येन यज्ञ' का आयोजन करें तो ?' वे उस का निषेध करेंगे ! वास्तव में वेदोक्त यज्ञों के परमार्थ को आत्मसात किये बिना ही सिर्फ अपनी ही मति-कल्पना के वशीभूत हो, हिंसाचार-युक्त पापप्रचुर यज्ञ कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकते, ना ही कर्मयज्ञ को ब्रह्मयज्ञ कह सकते हैं।
सर्वप्रथम ध्येय की शुद्धि करो। कहाँ जाना है ? क्या पाना है ? इसका स्पष्टीकरण होना आवश्यक है ! क्या मोक्ष में जाना है ? मोक्ष का ध्येय स्पष्ट हो गया है ? विशुद्ध आत्म-स्वरूप प्राप्त करना है ? तब पाप-प्रचुर कर्मयज्ञ करने का क्या प्रयोजन ? अर्थात् ऐसे यज्ञ का कोई प्रयोजन नहीं है । अपने जीवन का हर पल, हर क्षण ज्ञानयज्ञ में लगा दो ? बस, दिन-रात अहर्निश ज्ञान-यज्ञ शुरू रहना चाहिए।
ब्रह्मयज्ञः परं कर्म गृहस्थस्याधिकारिणः ।
पूजादि वीतरागस्य ज्ञानमेव तु योगिनः ॥४॥२२०॥ अर्थ :- अधिकारी गृहस्थ के लिए केवल वीतराग का पूजन-अर्चन आदि ब्रह्म
यज्ञ है , जबकि योगी के लिए ज्ञान ही ब्रयह्मज्ञ है । विवेचन :- क्या ब्रह्मयज्ञ करने का अधिकार सिर्फ मुनिवरों को ही है ? क्या योगीजन ही ब्रह्मयज्ञ कर सकते हैं ? जो गृहस्थ हैं, उन्हें क्या करना चाहिए ? क्या गृहस्थ ब्रह्मयज्ञ नहीं कर सकते ? अवश्य कर सकते हैं , लेकिन इसके वे अधिकारी होने चाहिए , योग्यता प्राप्त
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