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ज्ञानसार
इस झंझट में कभी न फँसना । मार्ग-भ्रष्ट न होना । मैं तो इस के कीचड में सर से पाँव तक सन गया हूँ, लेकिन तुम हर्गिज न सनना, बल्कि सदा-सर्वदा निर्लेप रह आराधना के मार्ग पर गतिशील रहो ।"
लेकिन जो साधु अपना आत्मनिरोक्षण नहीं करता है, ना ही अपनो त्रुटियों को समझता है....वह निःसन्देह खुद तो परिग्रह का बोझ ढ़ोने वाला कुलो बनेगा हो, साथ में अन्य मुनियों को भी परिग्रही वनने के लिए उकसायेगा । उसका उपदेश मार्गानुसारी नहीं, अपितु उन्मार्गपोषक होगा । वह कहेगा : "हम तो सदा अपने पास सम्यग् ज्ञान के साधन रखते हैं.... सम्यक् चारित्र के उपकरणों से युक्त हैं । हम भला कहाँ कंचन-कामिनी का संग करते हैं ? फिर पाप कैसा ? साथ ही, जो हमारे पास है, उसके प्रति हममें ममत्व की भावना कहाँ है ? ममत्व होगा, तभो परिग्रह !" इस तरह अपना बचाव करते हुए, 'ऐसा परिग्रह तो रखना चाहिए,' का निश्शंक उपदेश देगा ।
उपदेश द्वारा लाखों को संपत्ति इकट्ठी कर, और उस पर अपना अधिकार प्रस्थापित कर उक्त रकम किसी भक्त की तिजोरी में बन्द रखना, क्या परिग्रह नहीं है ? उपाश्रय, ज्ञानमंदिर, पौषधशाला और धर्मशाला निर्माण हेतु उपदेश के माध्यम से कराड़ों रूपये खर्च करवाकर उनकी व्यवस्था/प्रबन्ध के सारे सूत्र अपने हाथ में रखना, क्या परिग्रह नहीं है ? सहस्त्रावधि पुस्तकों की खरीदी करवाकर उस पर अपने नाम का ठप्पा मारकर उसका मालिक बनना, क्या परिग्रह नहीं है? इतना ही नहीं, बल्कि इससे एक कदम आगे, इन कार्यों के प्रति अभिमान धारण कर उससे अपने बड़प्पन का डका पिटवाना, क्या साधुता का लक्षण है ? ऐसे परिग्रही लोगों को पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'वेषधारी' को संज्ञा प्रदान की है । सिर्फ वेश मुनि का, लेकिन आचरण गृहस्थ का । अपरिग्रह का जयघोष करने वाले जब परिग्रह के शिखर पर पारोहण हेतु प्रतिस्पर्धा करने लग जाए, तब ऐसा कौन-सा ज्ञानी पुरूष है, जिसका हृदय आतनाद से चीख न पड़ेगा ?
एक समय की बात है । किसी त्यागी पुरुष के पास एक धनिक गया। वन्दन-स्तवन कर उसने विनीत भाव से पूछा “गुरूवर, मुझे हजार रुपये गरीब, दीन-दरिद्र और मोहताज लोगों में बांटने हैं....पापको
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