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________________ १०२ ज्ञानसार जिसमें आत्मा की मधुर स्मृति वास करती है, एक मात्र आत्मानन्द की प्राप्ति का लक्ष्य है, करुणासागर परमदयालू जिनेश्वर भगवान के प्रति श्रद्धाभाव है और पापक्रिया से मुक्त होने की पवित्र भावना है, ऐसी कोई भी क्रिया शुभ बाह्य भाव है । अशुभ पाप-क्रियाओं की अनादिकालीन आदत से छटकारा पाने के लिये धर्म-क्रियाओं का आश्रय लिये बिना और कोई चारा नहीं है । उसके बिना सब व्यर्थ है। अगर तुम्हारा पुत्र तुमसे कहे कि 'पिताजी, मुझे शाला में दाखिल क्यों करते हो ? विशेष प्रकार की वेशभूषा करने का आग्रह क्यों कर रहे हो ? अमुक पुस्तकों का ही मनन-पठन करने का आदेश क्यों देते हो ? अध्यापक के पास जाकर शिक्षा-ग्रहण करने का उपदेश क्यों देते हो ? क्योंकि यह सब व्यर्थ है, निरर्थक है, बल्कि किसी काम का नहीं । ज्ञान तो आत्मा का गुण है और आत्मा से ही ज्ञान का प्रगटीकरण होता है । तब नाहक शाला में जाकर विद्याध्ययन करने का कष्ट क्यों उठाना ? अतः मैं शाला में नहीं जाऊँगा, घर पर ही रहूँगा, खूब मौज-मस्ती करूँगा और टी. वी.-वीडियो देखूगा ।' तब क्या तुम उसकी बात को मान लोगे, स्वीकार कर लोगे? उसका शाला में जाना बन्द कर दोगे ? घर पर बिठा दोगे ? एकाध सैनिक अपने नायक से जाकर कहे : "आप कवायद क्यों करवाते हैं ? किसलिये मीलों तक दौड़ लगवाते हैं ? नाना प्रकार की कसरत करवाते हैं ? शस्त्र-संचालन का प्रशिक्षण क्यों देते हैं ? बल और शक्ति आत्मा का गुण है और आत्मा में से ही पैदा होता है । अतः यह सब निरर्थक है, सारी क्रियायें निरी बकवास हैं ।" क्या नायक ऐसे सैनिक को पल भर के लिये भी सह लेगा ? उसे सेना में से भगा नहीं देगा ? ___आत्मगुण के लिये आवश्यक क्रिया-अनुष्ठान करना ही पड़ेगा । तभी सही प्रात्मगुणों का प्रगटीकरण संभव है। अनन्त ज्ञानी जिनेश्वरदेव ने आत्म-विशुद्धि के लिये जिन कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रक्रियाओं को महत्वपूर्ण बताया है, उन्हें श्रद्धा-भाव से करना ही पड़ेगा। मूह में कौर डाले बिना कहीं उदरतृप्ति हुई है ? यदि हमें परम तृप्ति का सुख चखना है तो मुह में कौर डालने की क्रिया निःसंदिग्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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