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ज्ञानसार
और मानसिक अशांति दूर नहीं कर सका है। फिर भी विज्ञान की परिपूर्णता का गीत गाता अर्धदग्ध मानव उसकी सर्वोपरिता पर अंधश्रद्धा रख, मुस्ताक है। बुद्धि का दुराग्रह जब मनुष्य को अतीन्द्रिय पदार्थों के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करने देता तब उसके साक्षात्कार की बात ही कहाँ रही ?
आत्मा-परमात्मा इंन्द्रियातीत तत्त्व हैं ! हालाँकि तर्क एवं बुद्धि से उस का अस्तित्व सिद्ध है, फिर भी वह इन्द्रियों से प्रत्यक्ष में अनुभव न किया जाए ऐसा तत्त्व है। इस का अनुभव करने के लिए इंद्रियातीत शक्ति और सामर्थ्य होना आवश्यक है। उन तत्त्वों का साक्षात्कार नि:संदेह परम शांति प्रदान करने वाला एकमेव उपाय है । वह मानव की समस्त समस्याओं का रामबाण समाधान/ निराकरण है, जो अन्य किसी साधन-सामग्री से अशक्य है। इस का साक्षात्कार होते ही मानव अपने आप को 'दु:खी, पीडीत और अशान्त' नहीं समझता। कष्ट, अशांति और पीडा उसे स्पर्श तक नहीं कर सकती।
अतः अतींद्रिय पदार्थों का निर्णय करने हेतु बुद्धि के जाल में फंस मानव-जीवन की अमूल्य पलों को व्यर्थ गँवाने के बजाय अनुभव के राजमार्ग पर प्रयाण कर और आत्मानुभूति कर दुःख अशांति के गहराये बादलों को छिन्न-भिन्न करना यही श्रेष्ठ सार है और परमार्थ है। 'अतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय करने में आज तक दिग्गज पंडित और बुद्धिमान सफल नहीं हुए हैं !' कहकर ग्रंथकार ने हमें अपना मार्ग परिवर्तित करने की प्रेरणा दी है । साथ ही सुयोग्य मार्गदर्शन किया है। और हमें आत्मानुभव के प्रशस्त-मार्ग पर निरंतर गतिशील होने के लिए प्रोत्साहित किया है। शास्त्र और विद्वान् तो मात्र दीप-स्तम्भ हैं ! अतः सिर्फ उन से जुड़े रहने से कार्य सिद्ध नहीं होता। साथ उन के मार्गदर्शन में हमें अपना मार्ग खोजना है।
केषां न कल्पनादवी शास्त्रक्षीरान्नगाहिनी !
विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया ॥१॥२०॥ अर्थ : किस की कल्पना रुपी कलछी शास्त्र रुपी खीर में प्रवेश नहीं कर
सकती? लेकिन अनुभव रुपी जीभ से शास्त्रास्वाद को जानने वाले विरले ही होते हैं।
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