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चार निक्षेप ]
[ ८३ को कोई स्थापित नहीं कर सकता है । इसलिए वहां 'अहंदा दिरुपेण तिष्ठतीति स्थापना, यानी कि 'अरिहंत आदि रुप से रहते हैं वह स्थापना' ऐसा व्युत्पत्ति-अर्थ करना चाहिए ।
नाम निक्षेप और स्थापना निक्षेप में इस तरह बहुत अंतर हैं। परमात्मा की स्थापना (मति), देवों की स्थापना, गुरुवरों की स्थापना के दर्शन-पूजन से इच्छित लाभों की प्राप्ति प्रत्यक्ष दिखती है। इसके अलावा प्रतिमा के दर्शन से विशिष्ट कोटि के भाव भी जाग्रत होते हैं । द्रव्य निक्षेपः
1'भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके ।
तद्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥'
जो चेतन-अचेतन द्रव्य भूतकालीन भाव का कारण हो या भविष्य काल के भाव का कारण हो उसे द्रव्य निक्षेप कहते हैं ।
उदाहरणार्थ भूतकाल में वकील या डाक्टर हों परन्तु वर्तमान में वकालत न करते हो या दवाई नहीं करते हो तो भी जनता उन्हें वकील या डॉक्टर कहती है । यह द्रव्य निक्षेप से वकील या डाक्टर कहे जाते हैं । इसी तरह अभी तक वकालात पढ़ रहे हों या मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे हों तो भी लोग उन्हें वकील या डॉक्टर कहते हैं क्योंकि वे भविष्य में वकील या डॉक्टर होने वाले हैं । इसी तरह भूतकालीन पर्याय का एवं भविष्यकालीन पर्याय का जो कारण वर्तमान में हो उसे द्रव्य-निक्षेप कहते हैं।
द्रव्य निक्षेप की दूसरी परिभाषा इस तरह की जाती है-'अणुवओगो दव्वं' अनुपयोग अर्थात भावशून्यता, बोध-शून्यता........उपयोग शून्यता। जिस क्रिया में भाव, बोध, उपयोग न हो उस क्रिया को द्रव्य क्रिया कहते हैं।
लोकोत्तर द्रव्य-आवश्यक की चर्चा करते हए अनुयोग द्वार सूत्र में कहा है कि यदि कोई श्रमण गुणरहित और जिनाज्ञारहित बनकर, स्वच्छंदता से विचरण कर, उभयकाल प्रतिक्रमण के लिए खड़ा हो उस साधु वेशधारी का प्रतिक्रमण वह लोकोत्तर द्रव्य आवश्यक है।'
द्रव्य निक्षेप की विस्तृत चर्चा के लिए 'अनुयोग द्वार सूत्र' का अध्ययन करना आवश्यक है । 1. अनुयोग द्वार-सूत्र
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