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ज्ञानसार
_वास्तव में तो तुम्हें अहर्निश इस बात का विचार करना चाहिये कि 'यदि जड़ पुद्गलों के परिभोग से मेरी आत्मा को चिरंतन तृप्ति का लाभ नहीं मिलता तो भला, जड़ पुद्गलों के उपभोग से क्या लाभ ? उनका प्रयोजन किस लिये ? इसके बजाय उसका परित्याग ही क्यों न कर लुं ? न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी । फिर ज्ञानध्यान में लग जाऊँ। आत्मगुरणों की प्राप्ति, वृद्धि और संरक्षण के लिये पुरुषार्थ कर।' इस तरह का दृढ़ संकल्प कर आत्मा के अान्तरिक उत्साह को उल्लसित करना चाहिये । ठीक वैसे ही विविध प्रकार की तपश्चर्या, व्रतनियमादि को अंगीकार कर कामलिप्सा एवं भोगविलास के विविध प्रसंगों का परित्याग कर पुद्गलों से तृप्त होने की आदत को सदा-सर्वदा के लिये भला देना चाहिये । हमेशा याद रहे कि अनादि काल से जिसके साथ स्नेह-संबंध और प्रीति-भाव के बन्धन अटूट हैं, वे तभी टूट सकते हैं, खत्म हो सकते हैं, जब हम उसकी संगति, सहवास और उपभोग लेना सदा के लिये बन्द कर दें । पुदगल-प्रीति के स्नेह-रज्जुनों को तोड़ने के लिये पुद्गलोपभोग से मुंह मोड़े बिना कोई चारा नहीं है । इसी तथ्य को दृष्टिगत कर, ज्ञानी महापुरुषों ने तप-त्याग का मार्ग बताया है ।
प्रात्मगुणों के अनुभव से प्राप्त तृप्ति चिरस्थायी होती है । उसमें निर्भयता और मूक्ति का सुभग संगम है। जब कि जड़ पदार्थो के उपभोग से मिलो तृप्ति क्षणभंगुर है। उसमें भय और गुलामी की बदबू है। अतः ज्ञानी महापुरुषों को प्रात्मगुणों के अनुभव से प्राप्त तृप्ति के लिये ही सदा-सर्वदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, जो लाभप्रद है और हितकारक भी ।
मधुराज्यमहाशाका ग्राह्ये बाह्ये च गोरसात ।
परब्रह्मरिण तृप्तिर्या जनास्तां जानतेऽपि न ॥६॥७८॥ अर्थ :- जिनको मनोहर राज्य में उत्कट आशा और अपेक्षा है, वैसे पुरुषों
से, प्राप्त न हो ऐसी वाणी से अगोचर परमात्मा के संबंध में जो
उत्कट तृप्ति मिलती है, उसको सामान्य जनता नहीं जानती है । विवेचन :- परम ब्रह्मानंदस्वरूप अतल उदधि की अगाधता को स्पर्श करने को कल्पना तक उन पामर/नाचीज़ जीवों के लिये स्वप्नवत् है,
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