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________________ मौन १७५ है, ठीक उसी तरह संसार के उन्माद को जानने वाला मुनि-श्रमण स्व-प्रात्मा को लेकर ही संतुष्ट होता है । विवेचन : एक अदना-सा इन्सान । सामान्य देहयष्टि, दुबला पतला, कमजोर तिनके जैसा । फूक मारे तो उड जाए ! वह अपने तनबदन को पुष्ट-शक्तिशाली बनाने की इच्छा करता है ! तभी एक दिन सूजन के मारे हाथ, पांव, गाल, चेहरा फूल गया ! एक बार किसी परिचित से भेंट हो गयी । कई दिनों की जानपहचान थी । उसने उसे गौर से देखा और तपाक से कह दिया : "दोस्त, क्या बात है ? बड़े तन्दुरूस्त नजर आ रहे हो !' अब आप ही कहिए, वह अपने दोस्त को क्या नवाब दे ? ' क्या वह दोस्त के कहने से सूजे हए शरीर को तन्दुरुस्त मान लेगा? अपने को पुष्ट मान लेगा ? वास्तव में देखा जाए तो वह निरोगी तो नहीं, रोग से परिपूर्ण मानता है । और उसे ऐसी कृत्रिम पुष्टता की कतई चाह नहीं है । ठीक इसी तरह कर्मोदय से, पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त भौतिक संपत्ति के प्रति मूनि का यह रूख होता है ! कर्मजन्य सौंदर्य, रूप, रंग, आरोग्य, सुडौलता, परिपुष्टतादि पौद्गलिक भावों के प्रति मुनि की यह दृष्टि होती है कि 'यह वास्तविक पुष्टता नहीं है, बल्कि कर्मजन्य भयंकर व्याधि है !' जैसे शरीर के प्रति ममत्व रखने वाले को 'सूजन' रोग लगता है, ठीक उसी तरह जिसे प्रात्मा पर ममत्व है उसके लिए पूरा शरीर ही रोग प्रतीत होता है । शारीरिक पुष्टता को वास्तविक पुष्टता नहीं मानता । . प्राचीनकाल में ऐसी परंपरा थी कि जिसका वध करना हो, बलि चढ़ानी हो, बलिदान के पूर्व उसका श्रृंगार किया जाता था ! नये वस्त्र और पुष्प-मालाएँ पहनायी जाती थी ! ढोल, तुरही और जयघोष के बीच उसकी शोभायात्रा निकाली जाती ! ऐसे समय वधस्तम्भ की ओर ले जाये जानेवाले मनुष्य को श्रृंगार और वाद्यवद क्या पाल्हादक लगते ? क्या वह जय जयकार और श्रृंगार से प्रसन्न होता ? नहीं, बिल्कुल नहीं । श्रृंगार, जय जयकार और तुरही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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