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तप
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यहां मूल श्लोक में 'वृत्ति' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिस आ अर्थ 'विचार' होता है, अर्थात् अज्ञानी जीवों की लोक प्रवाह का अनुसरण करने की वृत्ति (विचार) सुखशीलता है । लेकिन ग्रन्थकोर ने स्वयं ही 'वृत्ति' का अर्थ 'प्रवृत्ति' करते हुए मासक्षमण (एक महिने का उपवास) सदृश उग्र तपश्चर्या की प्रवृत्ति प्रदर्शित की है। मतलब, तपश्चर्या को मात्र विचार रुप नहीं, बल्कि आचाररुप निर्दिष्ट कर बाह्य तप पर भार दिया है !
'बाह्यं तदुबहकम् ।' का प्रयोग कर बाह्य तप अंतरंग तप का सहायक है-ऐसा आभास पैदा किया था कि कर्मक्षय के लिए अंतरंग तप सर्वथा आवश्यक है ! अलबत्ता, बाह्य तप करना हो तो करें। लेकिन तुरंत ही दूसरे श्लोक में अपने कथन का स्पष्टीकरण किया है । लोकप्रवाह...लोकसंज्ञा के अधीन बन अगर तप की ही उपेक्षा करते हो तो यह तुम्हारी सुखशालता को आभारी है और तुम अज्ञानी हो।
- अंतरंग तप सुदृढ़ बनने के लिए बाह्यतप नितान्त जरूरी है । अतः टीका में ग्रन्थकार ने तद्भवमोक्षगाम) तोथंकरों का उदाहरण दे कर कहा है कि, 'वे स्वयं बाह्य तप का आचरण करते हैं ।' तब हम भला, यह भी नहीं जानते हैं कि 'किस भव में हमारी मुक्ति है ! हम मोक्षपद के अधिकारो बननेवाले हैं या नहीं, तो तप क्यों न करें ? , करो, जितना भी संभव है, अवश्य बाह्य तप करो....! शरीर का मोह त्याग कर तपश्चयी करो । धोन, वीर और उग्र तपश्चर्या कर अपनी अनन्य आत्मशक्ति का इस संसार को परिचय कराम्रो । लोकप्रवाह के विपरीत प्रवाह में तैर कर अपनी धीरता और वीरता का प्रदर्शन कर, आगे बढते रहो । कर्मक्षय का आदर्श अपने सामने रख, तप करते ही रहो ।।
धनाथिनां यथा नास्ति शीततापादि दुस्साहम् ।
तथा भवविरक्तानां तत्त्वज्ञानाथिनामपि ॥३॥२४३॥ अर्थ :- जिस तरह धनाथों को सदी -गरमी आदि कष्ट दुस्सह नहीं हैं,
ठीक उसी तरह संसार से विरवत तत्वज्ञान के चाहक को भी शीत - तापादि कष्ट सहन करने रुपी तप दुस्सई नहीं हैं ।
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