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सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां केवल तयोः पृथक् । बुधैरनुभवो दृष्टः केवलाकरुणोदयः ॥ १॥ २०१ ।।
अर्थ :- जिस तरह दिन और रात्रि से संध्या अलग है, ठीक उसी तरह ज्ञानी पुरुषों को केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से भिन्न केवलज्ञानस्वरुप सूर्य के प्ररूणोदय समान अनुभव की प्रतीति हुई है ।
विवेचन :यहाँ उस अनुभव की बात नहीं है, जिसे आमतौर से मनुष्य कहता है : "मेरा यह अनुभव है ! मैं अनुभव की बात कहता हूँ ! " कहनेवाला मनुष्य सामान्यत: अपने जीवन में घटित घटना को 'अनुभव' की संज्ञा प्रदान कर कहता है । लेकिन ग्रंथकार ने श्रम मनुष्य नहीं समझ सके वैसे 'अनुभव' की बात कही है !
एक समय की बात है । कोई एक सद्गृहस्थ मेरे पास आए । सात्त्विक प्रकृति और धार्मिक वृत्ति के थे । वंदन कर उन्होंने विनीत भाव से कहा : “गुरूदेव, ध्यानस्थ अवस्था में मुझे अद्भुत अनुभव होते हैं !
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" किस तरह के अनुभव ?"
ज्ञानसार
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"कभी-कभी मुझे ग्रपने चारों और लाल-लाल रंग फैले नजर आते हैं । कभी भगवान श्री पार्श्वनाथ की मनोहारी मूर्ति के दर्शन होते हैं, तो कभी-कभार मैं किसी अज्ञात अपरिचित प्रदेश में अपने आप को भ्रमण करता महसूस करता हूँ .. इस तरह उन्होंने ध्यान में स्फुरित विविध विचार... आदि प्रात्मानुभव कह सुनाये ! लेकिन ग्रन्थकार को ऐसे अनुभव भी यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं । ग्रन्थकार तो 'अनुभव - ज्ञान' स्पष्ट करना चाहते हैं ! उसे समझाने के लिए और स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं :
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' संध्या तुमने देखी है ? क्या उसे दिन कहोगे ? या फिर उसे रात्री कहोगे ? नहीं ! यह सर्वविदित है कि संध्या, दिन-रात से एकदम भिन्न है । ठीक उसी तरह अनुभव भी श्रुतज्ञान नहीं है, ना ही केवलज्ञान ! वह इन दोनों से बिल्कुल भिन्न है ! हाँ, वह केवलज्ञान के सन्निकट अवश्य है ! सूर्योदय के पूर्व अरुणोदय होता है न ? बस, हम अनुभव को सिर्फ केवलज्ञान रुपी सूर्योदय के पूर्व का अरूणोदय
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