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ज्ञानसार
विकारों को तिलांजलि देनी चाहिये । साथ ही, पर-पदार्थ की स्पृहा से पूर्णरूपेण निवृत्त होना चाहिये । परिणामस्वरुप, मानव इसी जीवन में मोक्ष-सुख का अधिकारी बन सकता है !
शमसूक्तसुवासिक्त येषां नक्त दिन मनः ।
कदाऽपि ते न दह्यन्ते, रागोरगविषोमिभि: ७॥४७।। अर्थ : शम के सुभाषित रूपी अमृत से जिसका मन रात-दिन सिंचित है,
बह राग-रूपी सर्प की विषली फुत्कार से दग्ध नहीं होते। [ नहीं
जलते ] विवेचन :- शमरस से युक्त विविध शास्त्र-ग्रन्थ, धर्मकथा और सुभाषितों से जिसकी आत्मा सिंचित है, उसमें भूलकर भी कभी रागफरिणधर की विषेली लहर फैल नहीं सकती। जो नित्य प्रति उपशम से भरपूर ऐसे ग्रन्थों का अध्ययन-मनन करता हो, उसके मन में पार्थिव | भौतिक विषयों के प्रति आसक्ति, रति और स्नेह की विहवलता उभर नहीं सकती । महमुनि स्थूलिभद्रजी के समक्ष एक ही कक्ष और एकान्त में नगरवधु कोशा सोलह सिंगार सज, नृत्य करती रही । अपने नयन-बारण और कमनीय काया की भाव-भंगिमा से रिझाती रही । लेकिन स्थलिभद्रमी क्षणार्ध के लिये भी विचलित नहीं हुए, बल्कि अन्त तक ध्यान-योग में अटल-अचल-अडिग रहे । यह भला कैसे संभव हुना ? केवल उपशमरस से युक्त शास्त्र-परिशीलन में उनकी तत्लीनता के कारण ! महीनों तक षड्रसयुक्त भोजन ग्रहण करने के उपरान्त भी उन्हें मद-मदन का एक भी बाण भेद नहीं सका। भला किस कारण ? वह इसलिए कि उनके हाथ और मुंह खाने का काम कर रहे थे, लेकिन मन-मस्तिष्क समता-योग के सागर में गोते जो लगा रहा था !
__ इन्द्रियाँ जब अपने-अपने विषयों में व्यापृत रहती हैं, तब उसमें मन नहीं जुड़े और उपशमरस की परिभावना में लीन रहे, तो सब काम सुलभ बन जाएगा । राग-द्वेष तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकेंगे। अतः हमें सर्वप्रथम अपने मन को, उपशमपोषक धर्मग्रंथो के अध्ययन-मनन और बार-बार उसके परिशीलन में जोड़ना चाहिए । ठीक इस बीच, इन्द्रियों को अतिप्रिय हो ऐसे विषय-विकारों से उसका सम्पर्क तोड देना चाहिए । भले फिर जोर-जबरदस्ती क्यों न करनी पड़े ! क्योंकि पीछेहट
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