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ज्ञानसार
युक्तियुक्त नहीं है ! बौद्ध कहते हैं : "तप क्यों करना चाहिए ? पशुओं की तरह दुःख सहने से भला क्या लाभ ? वह तो अशाता वेदनीय कर्म के उदय-स्वरुप जो है ! हरिभद्रसूरीजी ने कहा हैं कि :
विशिष्टज्ञान-संवेगशमसारमतस्तपः ।
क्षयोपशमिकं ज्ञेयमध्याबाधसुखात्मकम् ।। 'विशिष्टज्ञान-संवेग-उपशमगर्भित तप क्षायोपशमिक और अव्याबाध सुखरूप है !' अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से सम्पन्न परिणति-स्वरुप है, ना कि अशातावेदनीय के उदय-स्वरुप है।
पूज्य उपाध्यायजी महाराज का कथन है कि तपश्चर्या में अंतरंग मानंद की धारा अखंडित रहती है, उसका नाश नहीं होता । अतः तपश्चर्या मात्र कष्टप्रद नहीं है । पशुपीडा के साथ मानव के तप की तुलना करना कहाँ तक उचित है ? पशु के हृदय में क्या कभी अंतरंग आनंद की धारा प्रवाहित होती है ? पशु क्या स्वेच्छया कष्ट सहन करता है ?
क्योंकि तपा की आराधना में प्रायः स्वेच्छया कष्ट सहने का विधान है ! किसी के बन्धन, भय अथवा पराधीनावस्था के कारण नहीं! स्वेच्छया कष्ट सहन करने में अंतरंग पानंद छलकता है, उफनता है ! इस आनन्द के प्रवाह को दृष्टिगोचर नहीं करनेवाले मात्र वौद्ध ही तप को दु:खरुप मानते हैं! उन्होंने केवल तपस्वी का बाह्य स्वरुप देखने का प्रयत्न किया है। उस के कृश देह को निहार, सोचा कि 'बेचारा कितना दु:खी है ? ना खाना, ना पीना,....सचमुच शरीर कैसा सूखकर काँटा हो गया हैं !' इस तरह तपश्चर्या के कारण शरीर पर होने वाले प्रभाव को देखकर उसके प्रति घणा-भाव पैदा करना आत्मवादी के लिए कहाँ तक उचित हैं ? योग्य हैं ?
धोर तपश्चर्या की, अनन्य एवं अद्भुत आत्म-बल से आराधना करनेवाले महापुरूष के.... प्रांतरिक आनन्द का यथोचित मूल्यांकन करने के लिए, उनका घनिष्ट परिचय होना अत्यावश्यक है। अरे, चंपा सदृश सुश्राविका के छह मास के उपवास के बदौलत परधर्मी और हिंसक बादशाह अकबर को आनन-फानन में अहिंसक बना दिया था ! लेकिन कब ? जब अकबर ने खुद होकर चंपा श्राविका का परिचय प्राप्त किया था । तपस्विनी चंपा के प्रांतरिक आनन्द को नजदीक से देखा और
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