________________
२०
ज्ञानसार
अनंत गुण-प्रदेश पर विचरण करने में, उस अदभत/अनोखे प्रदेश के संबंध में सही जानकारी प्राप्त करने में, उसकी अजीबोगरीब दास्तां सुनने और उसके अनादिकाल से चले आ रहे इतिहास को प्रात्मसात् करने में मग्न रहता है । पार्थिव असार संसार में आज तक उसने न देखा हो, न सुना हो और न जाना हो, ऐसा आश्चर्यकारक खेलतमाशा निहारने में निकट से देखने में वह इस कदर खो जाता है कि बाह्य जड पुद्गलों का शोरगुल और कोलाहल उसे आकुल-व्याकुल कर देता है । संगीत के मधुर स्वर और सरोद उसके लिये सिर्फ हर्ष-विषाद का कोलाहल बनकर रह जाता है। नवयौवनाओं के अंग-प्रत्यंग का निखार उसके लिए धधकता ज्वालामुखी बनकर रह जाता है । मनोहारी पुष्प और इत्र आदि की सुगंधित सौरभ में उसे सड़े-गले श्वान-फलेवर की बदबू का आभास होता है । बत्तीस व्यंजनों से युक्त भोज्य-पदार्थ उसके लिये 'रिफाईन' की गयी विष्टा से अधिक कुछ नहीं होते । रूपसुन्दरियों के दिल गुदगुदाने वाले मोहक स्पर्श और जंगली भालू के खुरदरे स्पर्श में उसे कोई अन्तर नज़र नहीं आता। ऐसी जीवात्मा भूलकर भी कभी शब्द, सौन्दर्य, संगीत, रस और गंध की क्या प्रशंसा करेगी ? हर्गिज नहीं करेगी, ना ही कभी सुनेगी । उसके लिए दोनों नीरस जो हैं ।
। तब भला वह सोने-चांदी के ढेर को देखकर मुग्ध हो जाएगा क्या ? अरे ! सोने-चांदी की चमक तो उसे आकर्षित कर सकती है, जो शब्द, सौंदर्य, संगीत, रस और गन्ध का रसिया हो, लालची और लम्पट हो ।
ऐसी स्थिति में पूर्ण यौवना नारी को अपने बाहुपाश में लेकर आलिंगन बद्ध करने की चेष्टा करना तो दूर रहा, ऐसी कल्पना करना भी उसके लिए असंभव है।
कंचन और कामिनी के प्रति नीरसता/उपेक्षाभाव, यह ब्रह्ममग्न आत्मा का लक्षण है और यही ब्रह्ममस्ती का मूल कारण है।
तेजोलेश्या-विवृद्धिर्या साधो: पर्यायवृद्धितः ।
भाषिता भगवत्यादौ, सेत्थंभूतस्य युज्यते ॥५॥१३॥ अर्थ : 'भगवती सूत्रादि' ग्रन्थों में साधु/श्रमण संबंधित निस तेजोलेश्या की
वृद्धि का उल्लेख, मासादि चारित्र-पर्याय की वृद्धि को लेकर किया गया है, वह ऐसे ही स्वनामधन्य ज्ञानमग्न नीवात्मा में संभव है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org