SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मग्नता २१ विवेचन : ज्ञानमूलक वैराग्य से प्रेरित होकर जो जीवात्मा संसार का त्याग कर साधु-जीवन/श्रमण-जीवन अंगीकार करती है, जिसने ज्ञान-दर्शन चारित्रमय जीवन जीने का संकल्प कर लिया है, उसे उसी समय से, जबसे वह साधु बना है, ज्ञान-दर्शन-चारित्र के क्षेत्र में अपूर्व आनद का अनुभव करने का मौका मीलता है । जब कि दूसरे दिन उसमें और वृद्धि होती है। इस तरह तीसरे दिन, चौथे दिन और एक माह तक उसमें निरन्तर अधिक से अधिकतर वृद्धि होती रहती है। यहाँ तक कि वह प्रायः दैवी सुखों में आकंठ डूबे व्यंतर देव-देवियों की प्रानंद-परिधि को भी लांघकर आगे बढ़ जाता है । ऐसी हालत में, उसका मन मृत्युलोक के गंदे और क्षणभंगुर सुख और समृद्धि की और आकर्षित होने का सवाल ही नहीं उठता । इस तरह दिन-प्रतिदिन ज्ञान-दर्शन-चारित्र में पूर्णता के आनन्द में साधक इतना तो लीन/तल्लीन हो जाता है कि बारह माह अर्थात् एक वर्ष में अनुत्तर देव के सुख भी उसके लिये कोई कीमत नहीं रखते । मतलब, वह पूर्ण रूप से ज्ञान-दर्शन-चारित्र के आनंद में सराबोर हो उठता है । चित्तसुख को तेजोलेश्या कहा जाता है । यही चित्तसुख एक वर्ष के बाद असीम/अमर्यादित बन जाता है । 'श्री भगवती सत्र' में कहा गया है कि आत्मानंद पूर्णानन्द की ऐसी क्रमशः वृद्धि केवल श्रमण ही करने में समर्थ हो सकता है । लेकिन इस तरह की पूर्णानन्द की क्रमशः वृद्धि करने के लिये श्रमण को कैसी साधना करनी पड़ती है, इसका मार्गदर्शन परम आराध्य उपाध्यायजी महाराज ने किया है : ० इन्द्रिय और मन, ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विश्रांति गृह में है ? ७ पौद्गलिक विषयों के दर्शन मात्र से अथवा आसक्ति के समय ऐसा अनुभव हुआ जैसे कि विष-पान कर लिया हो ? ७ परभाव संबंधित कर्तृत्व का मिथ्याभिमान नष्ट हुआ ? ० धनधान्यादि संपत्ति का उन्माद और रूपसुन्दरियों के प्रति मोह की भावना खत्म हो गयी ? जो साधक इन चार प्रश्नों का उत्तर 'हाँ' में देता है, यही प्रानंद को क्रमशः वृद्धि करने में पूर्णतया समर्थ है। इन चार बातों को पूरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy