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मर्वनयाश्रय
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धावन्तोऽपि नयाः सर्वे, स्युर्भावे कृतविश्रमाः ।
चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाश्रितः ।।१।।२४९।।। अर्थ : अपने-अपने अभिप्रायानुसार गतिमान्, लेकिन वस्तुस्वभाव में जिसकी
स्थिरता है, सभी नय ऐसे होते हैं। चारित्र-गुण में आसक्त साधु सर्व
नयों का आश्चय करनेवाला होता है । विवेचन : नयवाद !
कोई भी वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है । उसमें से किसी एक धर्म को ही नय मानता है, स्वीकार करता है । वह अन्य धर्मों का स्वीकार नहीं करता । उनका अपलाप करता है । अतः नयवाद को मिथ्यावाद की संज्ञा दी गयी है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज उसे 'नयाभास' कहते हैं ।
नय के कुल सात प्रकार हैं : नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ।
प्रत्येक नय का अपना-अपना अभिप्राय होता है । एक का अभिप्राय दूसरे से कदापि मेल नहीं खाता । प्रत्येक नय का हर एक पदार्थ के संबन्ध में अपना पूर्व-निर्धारित ठोस मत होता है। अतः सातों नयों का एक-सा अभिप्राय- निर्णय होना असंभव होता है। हाँ, एकाध समदृष्टि चिन्तक महापुरुष ही इनका समन्वय साध सकता है....। ऐसा महापुरुष प्रत्येक नय को उनकी भूमिका से ही न्याय देता है ।
ऐसे महामानव चारित्रगुणसंपन्न महामुनि ही हो सकते हैं । जब कभी एकाध नय के मन्तव्य का स्वीकार करते हैं, तब अन्य नय की उपेक्षा नहीं करते, बल्कि उन्हें वे कहते हैं कि, 'यथाअवसर तुम्हारा मन्तव्य भी स्वीकार करेंगे, फिलहाल प्रस्तुत नय का ही काम है, उसका ही प्रयोजन है ।' परिणाम स्वरुप वैचारिक टकराहट नहीं होती, पारस्परिक संघर्ष नहीं होता । महामूनि की चारित्र संपत्ति लूटे जाने की संभावना पैदा नहीं होती । वर्ना उत्तेजित आक्रामक नय, चारित्रसंपत्ति को धूल में मिलाते विलंब नहीं करते ।
पृथग्नयाः मिथः पक्षप्रतिपक्षकथिताः । समवत्तिसुखास्वादी, ज्ञानी सर्वनयाश्रितः ॥२॥२५०।।
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