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________________ ११० ज्ञानसार के सुगंधित जल से अभिषिक्त हो जाता हैं, तब उसमें ऐसा अदभुत विशुद्ध वीर्य उल्लसित हो उठता है कि जिसके माध्यम से अपने प्रियतम परमात्मा के गहन वचनों को यथार्थ रुप में समझने में शक्तिमान बन जाता है और तदनुसार यथासंभव पुरुषार्थ करने के लिये कटिबद्ध बनता है । ! ... फलतः उत्सर्ग और अपवाद, निश्चय और व्यवहार, नय और प्रमागादि के वास्तविक ज्ञान के साथ-साथ सर्वत्र वह आत्मा के लिये अनुकूल प्रवृत्ति करने के लिये तत्पर बन जाता है । तब वह 'असंग-अनुष्ठान' की सर्वोत्तम योग्यता प्राप्त करता है । ऐसी स्थिति में ज्ञान और क्रिया के बीच रहा अन्तर / भेद अपने आप दूर हो जाता है और दोनों परस्पर एक दूसरे के भाव में समरस हो जाते हैं । - असंग-अनुष्ठान की भूमि में भाव स्वरुप क्रिया, शुद्ध उपयोग और शुद्ध वीर्योल्लास में एकाकार हो जाती है। तीनों का स्वरुप भिन्न नहीं रहता, बल्कि सुभग-सुन्दर त्रिवेणी-सांगम बन जाता है । वे अपने अलग अस्तित्व को तिलांजलि देकर परस्पर तादात्म्य साध लेते हैं। तब आत्मा स्वाभाविक आनन्द के अमृतरस में तरबतर हो जाती है। फलतः इससे परम तृप्ति का अनुभव करते हए 'जिनकल्पी' 'परिहार विशुद्धि' साधु/महात्मा इस जीवन में परम सुख का रसास्वादन करते रहते हैं । : ऐसी सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने के लिये निम्नांकित चार बातें बतायी हैं । १. परमात्मा जिनेश्वर देव के प्रति अनन्य प्रीति । २. परमात्मा जिनेश्वर देव के प्रति श्रद्धा-भक्ति । ३. परमात्मा जिनेश्वर देव के वचनों का सर्वागीण ज्ञान । ४. उक्त ज्ञान के माध्यम से जिनवचनानुसार जीवन पावन करने हेतु महापुरुषार्थ । जब परमात्मा जिनेश्वर देव के प्रति प्रीति-भक्ति का भाव हो जाता है, तब संसार के भौतिक / पौद्गलिक पदार्थों के साथ स्नेह-संबंन्ध नहीं रह पाता । शब्द, रुप, रस और गंध के बन्धन टूटने लगते हैं। मोहान्ध कामान्ध जीवों का आदर-सत्कार करने की प्रवृत्ति बन्द हो जाती है। संसारविषयक, बातों को जानने की, समझने की, अवलोकन करने की और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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