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क्रिया
१०६ तपश्चर्या : प्रात्मा के अनाहारीपन के गुण की वृद्धि के लिये और आहारसंज्ञा के दोष के क्षय हेतु प्रस्तुत क्रिया अनिवार्य है । इसके बिना दोष-क्षय अथवा अनाहारीत्व गुण की वृद्धि प्रायः असंभव है ।
गुरुसेवा : विनय, विवेक, आज्ञांकिता, लघुता, नम्रतादि, गुणों की अभिवृद्धि के लिये गुरुसेवा और गुरुभक्ति जैसी क्रियायें अनन्य साधन हैं । सावधानी के साथ यदि इसका अवलंबन लिया जाय, तो गुरण-वृद्धि दूर नहीं है । अन्यथा जो गुण हैं, उनका लोप होते देर नहीं लगती।
- तीर्थयात्रा : परमात्मा के प्रति प्रीति, भक्ति और श्रद्धाभाव प्रदर्शित करने के लिये और स्व-गुणवृद्धि हेतु तीर्थयात्रा एक महत्वपूर्ण आलंबन है । विविध तीर्थों की यात्रा, जीवात्मा में परमेश्वर के प्रति अगाध भक्ति अनुपम प्रीति और अनिर्वचनीय श्रद्धाभाव पैदा करती है और गुणवृद्धि करने में सहायक सिद्ध होती है । लेकिन प्रस्तुत गुणों को विकसित करने की तमन्ना होना आवश्यक है । गुणों के बिना सारा जीवन सूना लगना चाहिये ।
इस तरह दान, शील, तप, स्वाध्याय, संलेखना, अनशन इत्यादि विविध अभिग्रह वगैरह क्रियायें नित नये गुणों के विकास और वृद्धि के लिये करनी चाहिये । इसके अभाव में गुरणप्राप्ति, गुणवृद्धि और गुणरक्षा प्रायः असंभव है । क्योंकि छद्मस्थ जीवों के संयम-स्थान, अध्यवसाय-स्थान चंचल होने के साथ-साथ लोप होने के स्वभाववाले हैं । केवलज्ञानी समस्त गुणों से युक्त होते है। अतः उनके लिये गुरण. क्षय अथवा गुरणों के पतन जैसा कोई भय नहीं है । साथ ही उनका संयमस्थान अप्रतिपाती-स्थिर होता है ।
वचोऽनुष्ठानतोऽसंगाक्रियासंगतिमंगति
सेयं ज्ञान क्रियाऽभेवभूमिरानन्दपिच्छला ।।८॥७२॥ अर्थ : वचनानुष्ठान से प्रसंग क्रिया की योग्यता प्राप्त होती है। वह ज्ञान
और क्रिया की प्रभेद भूमि है, साथ ही आत्मा के प्रभेद से
प्राप्लावित है। विवेचन : जब देवाधिदेव जिनेश्वर भगवन्त की प्रीति- भक्ति में जीवात्मा पूर्णरुप से आप्लादित हो जाए, आत्मा का एक-एक प्रदेश भक्तिभाव
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