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________________ ज्ञानसार । बाबा का वध कर छत्र छिन लो !" साथी बाबाजी के मंदिर की दिशा में वेग से निकल पडे। वे अभी थोड़े ही दूर गये होंगे कि भील्लराज ने उन्हें आवाज देकर वापिस बुलाया और कहा: "ध्यान रहे, बाबाजी के पाँव-चरण पूज्य हैं, अतः उन पर वार न करना।" साथी, भील्ल राज की आज्ञा शिरोधार्य कर निकल पडे ! बाबाजी विश्राम कर रहे थे। उन्होंने दूर से ही उन्हें लक्ष्य बनाकर तीरों की बौछार कर दी । गुरु देव को छलनी-छलनी कर दिया और छत्र लेकर भील्लराज के पास लौट आये ! "गुरुदेव का चरणस्पर्श नहीं किया न?" "नहीं, हमने उन्हें दूर से ही तीरों की बौछार कर बींध दिया । चरणों पर वार करने का प्रसंग ही न आया।" जरा सोचो तो, भील्लराज की यह कैसी गुरु भक्ति ? शास्त्राज्ञा का उल्लंघन कर, भले ही तुम ४२ दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करो, अथवा किसी निर्दोष बस्ती में वास करो। पांच महाव्रतों का कठोरतापूर्वक पालन करो, लेकिन जिनाज्ञा का उल्लंघन किया, यानी प्रात्मा की ही हत्या कर दी। प्रात्मा का ही हनन कर देने पर वाह्याचारों का पालन करने का क्या अर्थ? जिनाज्ञा-निरपेक्ष रह, पालन किये गये बाह्याचार आत्मा का हित साधने के बजाय अहित ही करते हैं। अत: जिनाज्ञा का परिज्ञान होना जरूरी है। इसका अर्थ यदि कोइ मुनि यूं ले लें कि, "हमें शास्त्र-स्वाध्याय करने की क्या आवश्यकता है? हम तो बयालीस* दोषरहित भिक्षा ग्रहण करेंगे ! महावतों का निष्ठापूर्वक पालन करेंगे। प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि क्रियाँए नियमित रूप से करते रहेंगे । आयंबिल, उपवासादि तपस्या करेंगे।" तो वह सरासर गलत और सर्वथा अनुचित है । ऐसी मान्यता रखनेवाले और तदनुसार आचरण करने वाले मुनियों को सम्बोधित कर यहाँ कहा गया है : 'हे मुनिराज ! बाह्य-आचार कभी प्रात्महित नहीं करेंगे। जिनाज्ञानुसार तुम्हारा व्यवहार नहीं है, आचरण नहीं है, यह सबसे बड़ा दोष है, अपराध है।" बयालीश दोष प-िशिष्ट में देखिए ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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