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ज्ञानसार ____ 'विषयेषु प्रवृत्तानां वैराग्यः खलु दुर्लभम्', जो पुद्गलपरिभोग में लिप्त हैं, उनमें वैराग्य दुर्लभ होता है। और जब वैराग्य ही नहीं, तब सम्यग् ज्ञानी कैसा ? सम्यग् ज्ञान के अभाव में ज्ञानानन्द की तृप्ति कैसी ? और ज्ञानानन्द में तृप्ति मिले बिना ध्यान-अमृत की डकारें कैसे संभव हैं ? जबकि ज्ञानतृप्त आत्मा को निरन्तर ध्यानामृत की डकार आती ही रहती हैं । आत्मानुभव में तादात्म्य साधने के पश्चात् प्रात्मगुणों में तन्मयता रुपी ध्यान चलता ही रहता है। परिणामस्वरूप ऐसे दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है कि वह संसार के जड-चेतन, किसी भी पदार्थ के प्रति आकर्षित नहीं होता ।
. निर्मम भाव से चले जा रहे खंधकमुनि ज्ञानामृत का पान कर परितप्त थे । ध्यान की साधना का आवेग उनके रोम-रोम में संचारित था। सहसा राजसैनिकों ने उन्हें दबोच लिया । उनकी चमड़ी उधेड़ने पर उतारू हो गये । खून की प्यासी छरी लेकर तैयार हो गये। खंधक मूनि तनिक भी विचलित न हुए। टस से मस न हुए। वे ध्यानसुधा को डकारें खा रहे थे । उनका प्रशान्त मुखमंडल पूर्ववत् ज्ञान-साधना से देदोप्यमान था। नयनों में शान्ति और समता के भाव थे। सैनिकों ने चमडी उधेड़ना आरंभ किया । रक्तधारा प्रवाहित हो उठी। जमीन रुधिराभिषेक से सन गयी । मांस के कतरे इधर--उधर उड़ने लगे । फिर भी यह सब महामुनि की ज्ञानसुधा की डकारों की परंपरा को नहीं तोड़ सका। वे पूर्ववत् ज्ञान-समाधि लगाये स्थितप्रज्ञ बने रहे। उनकी अविचलता ने, उच्चकोटि की ध्यान-साधना ने उन्हें धर्मध्यान से शुक्लध्यान को मंजिल की ओर गतिमान कर दिया। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय- इन घाती कर्मो का क्षय कर वे केवलज्ञान के अधिकारी बन गये । उनके सारे कर्मबन्धन टूट गये और भव-भवान्तर के फेरे खत्म हो गये ।
तात्पर्य यह है कि ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् ज्ञानी के मन में उसके मूलभूत गुण, तत्त्व अविरत संचारित रहने चाहिये । उमे उसका बारबार अवगाहन करते रहना चाहिये । तभी ज्ञान-अमृत में परिवर्तित
हो है और उसका सही अनुभव मिलता है । तत्पश्चात् सांसारिक सुख, भोगोपभोग अप्रिय लगते हैं, उनके प्रति घृणा की भावना अपने आप पैदा हो जाती है । शास्त्रार्जन और शास्त्र-परिशीलन से आत्मा
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