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________________ तप ४८१ प्रहर में पांच प्रहर (२४ घंटों में से १५ घंटे) स्वाध्याय में रत रहे ! गुरुदेव के सान्निध्य एवं मार्गदर्शन में शास्त्राभ्यास करे, उस पर चितन मनन करे और शंका-कुशंकाओं का समाधान प्राप्त करे । पठन किया हुआ विस्मरण न हो जाए, अतः नियमित रूप से उसकी आवृत्ति करे। साथ ही उस पर अनुप्रेक्षा [चिंतन-मनन] करता रहे । और चिंतन-मनन से स्पष्ट हुए पदार्थों का अन्य जीवों को उपदेश दे । सदैव उसका मन स्वाध्याय में खोया रहे ! इस तरह गुणों के विशाल साम्राज्य की प्राप्ति के लिये मुनीश्वर बाह्य-आभ्यन्तर १२ प्रकार के तप की आराधना में नित्यप्रति उद्यमशील बना रहे । कर्मों के अटूट बंधनों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध बना महामुनि अपने जीवन को ही तपश्चर्या के अधीन कर दे । तप के व्यापक स्वरूप की आराधना ही उस का एकमेव जीवन-ध्येय बन जाए । __उन्मत्त वृत्तिओं के शमन हेतु और उत्कृष्ट वृत्तिओं को जागृत करने के लिए तप, त्याग एवं तितिक्षा का मार्ग ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है । आराधना-उपासना का श्रेष्ठतम मार्ग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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