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________________ ४०४ ज्ञानसार जहां 'क्रोधी-मिथ्याभिमानी' समझती थी, वहाँ शास्त्र दृष्टि उन्हें मोक्षमार्ग के अनन्य यात्रिक निर्देशित कर रही थी ! मोक्षमार्ग के पथप्रदर्शक मान रही थी! शास्रदृष्टि के बल पर कुरगडु मुनि ने ज्यों ही अनुभव का अमृतलाभ प्राप्त किया, कि शिघ्र अनुभव-दृष्टि से उन्हेंने विशुद्ध परम ब्रह्म का दर्शन किया ! ऐसा अनुपम कार्य करती है शास्त्रदृष्टि ! - एक पाँव पर खड़े, दोनों हाथ आकाश की और उठाये तथा सूर्य की और निर्निमेष दृष्टि से स्थिर देखते प्रसन्नचंद्र राजर्षि के कान पर जब राज-मार्ग से गुजरते सैनिकों के ये शब्द पडे : “देखो तो, विधि की कैसी घोर विडम्बना ? बाल राजकुमार को छोड, यहाँ जंगल में प्रसन्नचंद्र राजर्षि कठोर तपस्या में लीन हैं और वहाँ राजकुमार के काका उसका राज्य हडपने के फिराक में है!" । बस, इतनी सी बात ! लेकिन प्रसन्नचंद्र राजर्षि ने उसे शास्त्रदृष्टि से नहीं देखा और ना ही सुना! तत्काल उन्होंने अपनी मनोभूमि पर शत्रु के साथ संघर्ष छेड दिया ! युद्धोन्माद से रौद्र रूप धारण कर दिया। घोर हिंसा का तांडव मच गया....और सातवी नर्क की ओर ले जाने वाले कर्म-बंधन का जाल गथने में प्रवृत्त बन गये ! उसी समय समवसरण में रहे भगवान महावीर प्रसन्नचंद्र राजर्षि की उक्त चर्महिष्ट की अपरम्पार लीला शांत भाव से देखते रहे ! उसी समवसरण में उपस्थित सम्राट श्रेणिक जब राजर्षि की घोर तपस्या की भूरी-भूरी प्रशंसा करने लगे तब भगवान ने केवल इतना ही कहाँ : "हे श्रेणिक ! यदि इसी क्षण राजर्षि का अंत हो जाएँ तो वह सातवीं नरक में जाएगा!" राजर्षि मुनिवेश में थे ! ध्यानस्थ मुद्रा में थे। कठोर तपश्चर्या के गजराज पर आरूढ थे....! लेकिन थे शास्त्र दृष्टि से रहित ! फलस्वरूप उनकी श्रमण-शक्ति अधोगमन का निमित्त बन गयी ! लेकिन जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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