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अनुभव
विवेचन : "यदि अनुभव-दृष्टि से ही विशुद्ध आत्म-स्वरुप का साक्षात्कार संभव है, तब फिर शास्त्रों का क्या प्रयोजन ? शास्त्राध्ययन, चिंतनमनन किसी काम का नहीं न ?”
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इस प्रश्न का यहाँ निराकरण किया गया है। शास्त्र दृष्टि से समस्त शब्द - ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना है, और उस ज्ञान से परमात्म-स्वरूप का रहस्य समझना है ? विना शास्त्र दृष्टि के शब्द - ब्रह्म का ज्ञान असंभव है और अनुभव - दृष्टि विकसित नहीं होती ।
शास्त्रों का अध्ययन और चिंतन-मनन अनुभव दृष्टि के लिए आवश्यक है । हाँ, शास्त्राध्ययन का ध्येय 'अनुभव' होना चाहिए । शास्त्रों की जाल में अटकने से कोई लाभ नहीं । यश-कीर्ति की पताका सर्वत्र लहराने के लिए शास्त्राध्ययन कर विद्वत्ता अर्जित करने वाले जीव अनुभवदृष्टि से वंचित रह जाते हैं ।
शास्त्रों का ज्ञान इस दृष्टि से प्राप्त करना चाहिए कि 'शास्त्र' ही हमारी 'दृष्टि' बन जाएँ । 'चर्मदृष्टि' पर 'शास्त्रदृष्टि' की ऐनक ऐसी तो व्यवस्थित बैठ जानी चाहिए की जो कुछ देखें, सुनें- समझें और चिंतन-मनन करें उसका एकमेव आधार शास्त्र ही हो ।
लगातार चार-चार माह के उपवास करने वाले मुनियों ने कुरगडु मुनि के पात्र में थूक दिया, तब कुरगडु मुनि ने उसे 'शास्त्रदृष्टि' से देखा था ! तपस्वियों के तिरस्कार-युक्त वाणी-शरों को शास्त्रदृष्टि से शांत रह केले थे । घृणायुक्त नयन-बाणों का समता भाव से सामना किया था !
(i) 'चर्मदृष्टि' ने जिसे 'थ्रुक' बताया 'शास्त्र - दृष्टि' ने उसे 'घी' समझा ! 'यह तो रुखे - सुखे भोजन में मुनिश्री ने कृपा कर 'घी' डाल दिया है ! तपस्वियों के मुख का अमृत ! '
(ii) चर्मदृष्टि से जो वचन असह्य पीडा के कारण थे, शास्त्रदृष्टि ने उन्हें 'पवित्र प्रेरणा का प्रवाह' माना ! ' संवत्सरी के पवित्र दिन भी मैं पेट भरने वाला हूँ.... मुझे इन तपस्वियों ने अनाहारी पद की प्रेरणा दी है !'
(iii) मुनियों के दुर्व्यवहार और अपमानास्पद प्रवृत्ति को चर्मदृष्टि
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