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________________ ७४ ] [ ज्ञानसार नहीं तो विघ्न आते हैं और काम अधूरा रह जाता है । कातने वाले का पुरुषार्थ और भोगने वाले का कर्म चाहिए । इसी तरह जीव के विकास में पांचों कारण काम करते हैं । भवितव्यता के योग से ही जीव निगोद से बाहर निकलता है । पुण्यकर्म के उदय से मनुष्यभव प्राप्त करता है । भवस्थिति (काल) परिपक्व होने से उसका वीर्य (पुरुषार्थ) उल्लसित होता है । और भव्य स्वभाव हो तो वह मोक्ष प्राप्त करता है। श्री विनयविजयजी उपाध्याय सज्झाय में कहते हैं : 'नियतिवशे हलु करमी थईने निगोद थकी निकलीयो, पुण्ये मनुष्य भवादि पामी सद्गुरु ने जई मलियो; भवस्थितिनो परिपाक थयो तव पंडित वीर्य उल्लसीयो । भव्य स्वभावे शिवगति पामी शिवपुर जइने वसीयो । प्राणी ! समकित-मति मन आणो, __ नय एकांत न ताणो रे........' 'किसी एक कारण से ही कार्य होता है'-ऐसा मानने वालों में से अलग अलग मत-अलग अलग दर्शन पैदा हुए हैं। २३. चौदह राजलोक कोई कहता है, 'यह मैदान ४० मीटर लम्बा है। कोई कहता है 'वह घर ५० फुट ऊंचा है'- अपन को तुरंत कल्पना हो जाती है। क्योंकि 'मीटर', 'फुट' आदि नापों से अपन परिचित हैं । 'राजलोक' यह भी एक नाप है। सबसे नीचे 'तमःतमःप्रभा' नरक से शुरू होकर सबसे ऊपर सिद्धशिला तक विश्व १४ राजलोक ऊंचा है। 1यह १४ राजलोक प्रमाण विश्व का आकार कैसा होगा, यह जिज्ञासा स्वाभाविक है । एक मनुष्य अपने दोनों पैर चौड़े करके और दोनों हाथ कमर पर रखकर खड़ा हो और जो आकार बनता है, ऐसा आकार इस १४ राजलोक प्रमाण विश्व का है। विश्व के विषय में कुछ मूलभूत बातें स्पष्ट करनी चाहिए । (१) इस लोक (विश्व) की उत्पत्ति किसी ने नहीं की थी । __ 1. वैशाखस्थानस्यः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः । - प्रशमरतिः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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