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ज्ञानसार
आरुढा :प्रशमणिं श्रुतकेवलिनोऽपि च !
भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा ॥५।।१६।। अर्थ : आश्चर्य तो इस बात का है कि उपशम-श्रेणी पर प्रारुढ एवं
चौदह पूर्वधरों को भी दुष्ट कर्म अनंत संसार में भटकाते हैं । विवेचन : उपशम श्रेणी !
पहले....दुसरे...तीसरे...चौथे....पांचवे....छठवें....सातवें....पाठवें.... नौवें...दसवें....ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुंच जाते हैं, मोहोन्माद शान्त.. प्रशांत...उपशांत हो गया होता है ! जिस गति से मोह का प्रमाण कम होता है, उसी अनुपात में प्रात्मा क्रमश : उच्च गुणस्थान पर अधिष्ठित होता जाता है।
- सपकवेणी पर चढता जीव ग्यारहवें गुणस्थान पर कभी.जाता ही नहीं ! वह सीधा दसवें गुणस्थान से छलांग मार...बारहवें गुणस्थान पर पहुँच जाता है । जहाँ मोह बिलकुल खत्म (क्षय) हो जाता है। बारहवें स्थान पर पहुँचा जीव सीधा तेरहवें गुणस्थान पर पहुँच, वीतराग बन जाता है । और तब प्रायुष्य पूर्ण होने पर, चौदहवें स्थान पर पहुँच कर मोक्षगति पाता है ।।
लेकिन ग्यारहवां गुणस्थानक अपनी फिसलन-वृत्ति के लिए सर्वविदित है ! इस स्थान पर मोहनीय कर्म का बोलबाला है । उसकी गिरफ्त से बड़े-बड़े वीर-महावीर बच नहीं सकते 1 मतलब, ग्यारहवा गुणस्थानक, कर्म का प्राबल्य, उसकी अजेयता और सर्वोपरिता का शक्तिशाली केन्द्र है ।
कोइ भी असामान्य व्यक्तित्व फिर भले ही उसे* दशपूर्वो का ज्ञान हो, वह सत चारित्र का धनी हो, वीर्योल्लास से युक्त हो, ग्यारहवें गुण स्थान पर पहुंचते ही आनन-फानन में कर्म-चक्रव्यह में फंस जाएगा ! संसार में भटक जायेगा । कर्म को चौदह पूर्वधरों की भी शर्म नहीं, उत्तम संयम की भी कतइ लाज नहीं, ना ही उत्कृष्ट ज्ञान की परवाह ! यही तो कर्म की निर्लज्जता है ! ___'कर्म' की इसी क्रूर लीला से कुपित हो, पूज्य उपाध्यायजी महाराज
देखिए परिशिष्ट
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