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योग
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करता है और इस तरह भावालोक का अवलोकन करता है । फलत: उसका मन उस में सघ जाता है, उसमें पूर्ण रुपेण श्रोत-प्रोत हो जाता है और उस में उसे प्रात्मानन्द की अनुभूति होती है । साथ ही साथ जिन - प्रतिमादि का प्रालंबन ग्रहण कर आनन्द में उत्तरोत्तर वृद्धि करता है । जिन - प्रतिमा में उसका मन प्रवेश करता है । फलत: वीतरागता एवं सर्वज्ञता के संग मुहब्बत हो जाती है ।
इस तरह योगी अपना कल्याण मार्ग प्रशस्त बनाता है । योगी का आभ्यन्तर सुख योगी खुद ही अनुभव करता है । भोगी उसे देख नहीं सकता, ना ही कह सकता है । और यदि कभी कह भी दे, तो भोगी को वह नीरस लगता है। योगी का सुख भोगी को आकर्षित नहीं कर सकता और ना ही भोगी का सुख योगी को कभी लनचा सकता है । आलंबनमिह ज्ञेयं, द्विविधं रुप्यरुपि च ।
अरूपगुणसायुज्य योगोऽनालम्बनः परः ||६।२१४।।
अर्थ :- यहाँ प्रालंबन रुपी और अरुपी, दो प्रकार के हैं । अरुपी सि स्वरुप के साथ तन्मयतारूप योग, वह उत्कृष्ट निरालंबन योग हैं । विवेचन :- आलंबन के दो भेद हैं-रूपी श्रालंबन और अरूपी आलंबन | रुपी श्रालंबन में जिन - प्रतिमा का समावेश है, जबकि प्ररूपी ग्रालंबन का मतलब सिद्धस्वरुप का तादात्म्य । वह आलंबन होते हुए भी निरालंबन योग माना जाता है। श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने अपने ग्रंथ 'योगबिंशिका' में कहा है
आलंबणं पि एवं हविमरुवि य इत्थ परमुति । तागुण परिणइरुवो सुमो प्रणालंबणो नाम ॥
यहाँ रुपी और रुपी, इस तरह प्रालंबन के दो भेद हैं । उस में भी श्ररुपी परमात्मा के केवलज्ञानादि गुणों के तन्मयता स्वरूप सूक्ष्म अनालंबन ( इन्द्रियों से अगोचर होने के कारण ) योग कहा है ।
पाँचवाँ एकाग्रता - योग ( रहित ) ही अनालंबन योग है । स्थान, वर्ण, अर्थ और आलंबन - ये चार योग सविकल्प - समाधि स्वरूप है, जब कि पाँचवाँ अनालम्बन योग निर्विकल्प समाधिस्वरूप है । प्रात्मा को
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