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________________ योग प्रलंबनयोश्चत्यवन्दनादौ विभावनम् । श्रेयसे योगिन: स्थान वर्णयोर्यत्न एव च ॥५॥२१३।। अर्थ : चंत्यवन्दनादि क्रिया करते समय अर्थ एवं आलंबन का स्मरण करना तथा स्थान और वणं में उद्यम करना योगी के लिए कल्याण कारक है। विवेचन :- योगी ! ऊर्ध्वगामी गतिशीलता ! परम ज्योति में विलीन होने की गहन तत्परता ! तिमिराच्छन्न वातावरण में प्रकाश की तेजस्वी ज्योति को मुखरित करने वाले, असत्य को मिटाकर सत्य की प्रतिष्ठा करने वाले और मत्यु की जड़ता का उच्छेदन कर अमरता का वरण करने वाले अप्रतिम साहसो योगी ! योगी कल्याण की कामना रखता है ! सुख की चाह रखता है! लेकिन वह जिस कल्याण एवं सुख का ग्राहक है वह सुख विश्व के बाजार में कहीं भी प्राप्त नहीं होता । लेकिन बाजार में सुख-क्रय करने वालों की भीड़ अवश्य जुटी हुई है। योगी वहां जाता है, लेकिन वहाँ का कोलाहल, शोर गुल, भीड-भडक्का और आपाधापी निहार, मागे निकल जाता है। तब उसके आश्चर्य और निराशा की सीमा नहीं रहती। वह व्यथित....दुःखी हो उठता है, संसार के नजारे को देखकर । बाजार में सजाकर रखे गये सुखों की वास्तविकता को उसकी तीक्ष्ण नजर परख लेती है । फलस्वरुप उसका हृदय द्रवित हो उठता है....'अरे, यह तो हलाहल विष से भी ज्यादा दारूण है। उस पर सिर्फ सुख का मिथ्या श्रृंगार किया गया है, सुख का मुखौटा पहनाया गया है। खरीददार आन्तरिक विषैलेपन को समझ नहीं पाते, अनभिज्ञ जो है । जो कुछ भी चमक-दमक है, वह ऊपरी तौर पर है। लोग-बाग बड़े चाव से खरीदकर जाते हैं, उसका यथेष्ट उपभोग करते हैं और अन्त में मिट जाते हैं, मटियामेट हो जाते हैं। योगी सुख अवश्य चाहता है, लेकिन उसे पुद्गलों की आसक्ति नहीं। वह प्रानन्द चाहता है, लेकिन मन का उन्माद नहीं। वह सागर सा शान्त और उत्तुंग शिखरों की तरह स्वस्थ है । वह बाह्य विश्व से सुख.... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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