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________________ त्याग मतलब यह कि हमें ज्ञानाचारादि का पालन पूरी लगन से करना चाहिये, जब कि अन्तिम लक्ष्य, संबन्धित पद-प्राप्ति का होना चाहिये। लेकिन निर्विकल्प अवस्था प्राप्त होते ही उसमें किसी संकल्प और क्रिया का स्थान नहीं रहता । क्यों कि निर्विकल्प योग में उच्च कक्षा के ध्येय-ध्यान-ध्याता की अभेद अवस्था होती है । जब तक यह अवस्था प्राप्त न हो जाए, तब तक ज्ञानाचारादि प्राचारों के प्रालंबन से शुभोपयोग में दत्तचित्त हो जाना चाहिये । योगसंन्यासतस्त्यागी, योगानध्यखिलांस्त्यजेत । इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ॥७॥६३।। अर्थ :- योग का निरोध कर त्यागी बन, जीवात्मा सभी योगों का भी त्याग करती है। इस तरह अन्य दर्शनों की 'निर्गुण ब्रह्म' की बात घटित होती है। विवेचन :- सर्वत्याग की पराकाष्ठा ! कैसा अपूर्व दर्शन कराने का सफल प्रयत्न किया गया है ? औदयिक भाव का परित्याग (धर्मसंन्यास) कर जीवात्मा को क्षायोपशमिक भाव में प्रतिष्ठित करना और कालान्तर में द्वितीय अपूर्वकरण साधने के लिये क्षायोपशमिक भाव का भी त्याग कर देना ! 'क्षपकश्रेणियोगिन : क्षायोपशमिकक्षान्त्यादि-धर्मनिवृत्ते : ।' 'योगदृष्टि समुच्चय' ग्रन्थ में ठीक ही कहा गया है-जिन महात्माओं ने क्षपक-श्रेणी पर आरोहरण किया है, उनके क्षमादि क्षायोपशमिक धर्म भी अन्तर्धान हो जाते हैं और तदनन्तर जो प्रकट होते हैं, वे क्षायिक गुण होते हैं । लेकिन जैसे ही जीवात्मा ने चौदहवे गुणस्थानक पर पारोहण किया कि 'योगनिरोध' के माध्यम से वह सर्व योगों का भी परित्याग कर देता है । इस क्रिया को 'योग-संन्यास' भी कहा जाता है । यह योग-संन्यास, 'आयोज्य करण' करने के पश्चात् किया जाता है । 'योग-दृष्टि-समुच्चय' ग्रन्थ में आगे कहा गया है कि 'द्वितीयो योग-सन्यास प्रायोज्यकरणादूर्ध्वं जीवति' । सयोगी केवलज्ञानी समुद्घात करने के पूर्व 'प्रायोज्यकरण' का प्रारंभ करता है। केवलज्ञान के माध्यम से अचिन्त्य वीर्यशक्ति द्वारा भवोपग्राही कर्म (अघाती कर्म) को ऐसी स्थिति में लाकर क्षय करने की क्रिया को 'आयोज्य करण' कहा जाता है। कायादि Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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