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ज्ञान
विवेचन : लोग कहते हैं कि प्रमृत समुद्र मंथन से पैदा हुआ है । रसायनशास्त्रियों का मत है कि रसायन औषधिजनित होता है । राजा-महाराजाधों की मान्यता है कि ऐश्वयं हाथी-घोडे और सोना-चांदी आदि संपदा में समाया हुआ है ।
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जबकि ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि, "ज्ञान 'अमृत' होते हुए भी समुद्र मंथन से नहीं निकला, रसायन होते हुए भी औषधि जन्य नहीं और ऐश्वर्य होते हुए भी हाथी-घोडे प्रथवा सोने-चांदी की अपेक्षा नहीं रखता ।”
समुद्र मंथन से प्रकट श्रमृत, मानव को मृत्यु से बचा नहीं सकता । लेकिन ज्ञानामृत उसे अजरामर बनाता है । श्रौषधिजन्य रसायन उसे शारीरिक व्याधियों तथा वृद्धावस्था से सुरक्षित रखने में असमर्थ है, जबकि ज्ञान रसायन से वह अनंत यौवन का अधिपति बनता है । सोने चांदी और हाथी-घोडे वाला ऐश्वर्य, जीवात्मा को निर्भय / निर्भ्रान्त बनाने की शक्ति नहीं रखता, लेकिन ज्ञान का ऐश्वयं उसके जीवन में सदैव अक्षय शान्ति, परम श्रानन्द और असीम निर्भयता भर देता है ।
तब भला क्यों भौतिक अमृत, रसायन एवं ऐश्वर्य की स्पृहा करें ? नाहक उसके पीछे दीवाने बन, तन-मन-धन की शक्तियाँ क्यों नष्ट करें ? व्यर्थ में ही क्यों ईर्ष्या, मोह, रोष, मत्सर, मूर्च्छादि पापों का प्रर्जन करें ? क्या कारण है कि उसके खातिर अन्य जीवों से शत्रुता मोल लें ? अमूल्य ऐसे मानव जीवन को क्यों नेस्तनाबुद करें ? क्योंकि यह जीवन ज्ञानामृत, ज्ञान रसायण और ज्ञान-ऐश्वर्य की प्राप्ति से उन्नत बनाने के लिए है । हमें सदा सर्वदा इसकी ही स्पृहा करनी चाहिए । इसे प्राप्त करने हेतु तन-मन-धन की समस्त शक्तियों का उपयोग करना चाहिये ।
इस तरह का भावनाज्ञान आत्मा में से प्रकट होता है और उसे प्रकट करने के साधन हैं-देव, गुरु और धर्म की आराधना । देव- गुरु-धर्म की उपासना से ही प्रात्मा में से ज्ञान अमृत ज्ञान रसायण और ज्ञान-ऐश्वर्य की ज्योति प्रज्वलित होती है । फलतः जीवात्मा को परम तृप्ति का अद्भुत श्रानन्द मिलता है । वह उत्तम आरोग्य की अधिकारी बनती है और परम शोभा को धारण करती है ।
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