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इसी भाँति बोगीराज को भय कैसा ? जिसके पास मिथ्यात्व के हिम शिखरों को प्रानन-फानन में छेदने वाला एकमेव शस्त्र 'ज्ञान' बो है । ज्ञान वज्र के समान अपने आप में सर्वशक्तिमान है । उसे डर किस बात का ? वह तो सुहाने आत्मप्रदेश के स्वर्ग में.... प्रात्मानंद के नन्दनवन में निर्भय बन हमेशा रमरण करता अपूर्व सुख का उपभोग करता है ।
यहाँ मुनिजनों को देवराज इन्द्र की उपमा दी गयी है । जैसे क्षणार्ध के लिये भी इन्द्र वज्र को अपने से दूर नहीं करता, ठीक उसी तरह मुनिजनों को भी सदैव आत्म-परिणति रूप ज्ञान को अपने पास बनाये रखना चाहिए | तभी वे निर्भय / निर्भ्रान्त रह सकते हैं और प्रात्मसुख का वास्तविक प्रानन्द पा सकते हैं । भगवान महावीर ने गौतम से एक बार कहा था : समयं गोयम ! मा वमायए ।' इस वचन का रहस्य -स्फोट यहाँ होता है । उन्होंने कहा था : " हे गौतम! तुम्हारे पास रहे ज्ञान वज्र को क्षणार्ध के लिए भी अपने से दूर रखने की भूल मत करना ।" इस सूक्ति के माध्यम से देवाधिदेव महावीर प्रभु ने सभी साधु-मुनिराजों को आत्मपरिणतिरूप ज्ञान को सदा-सर्वदा अपने पास संजोये रखने का उपदेश दिया है । जहाँ श्रात्म-परिरणतिरूप ज्ञान का विछोह हुआ नहीं कि तत्क्षरण राग-द्वेषादि असुरों का प्रबल आक्रमण तुम पर हुप्रा नहीं । ये सुर मुनिजनों को आत्मानन्द के स्वर्ग से धकियाते हुए बाहर निकाल पुद्गलानन्द के नरकागार में आसानी से धकेल देंगे । फलत: मुनिजन अपनी 'मुनि प्रवृत्ति' से भ्रष्ट हो जाते हैं और चारों ओर भय, प्रशान्ति, क्लेशादि अरियों से घिर जाते हैं ।
जब तक मुनि श्रात्मपरिणति में स्थित रहता है, तब तक राग-द्वेष, मोह-मायादि दुर्गुण उसके पास भटकने का नाम नहीं लेते और वह किसी भी प्रकार के बाह्य व्यवधान से निर्भय बन, आत्मानन्द का अनुभव करता रहता है ।
अर्थ
शाबसार
पीयूषमसमुद्रोत्थं, रसायनमनोवधम् ।
अनन्यापेक्षमैश्वर्य, ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ||८ ॥४०॥
: पंडितों ने ऐसा कहा है कि ज्ञान अमृत होते हुए भी समुद्र में से पैदा नहीं हुआ है, रसायन होते हुए भी औषधि नहीं है और ऐश्वर्य होते हुए भी हाथी-घोडे- प्रादि की अपेक्षा से रहित है ।
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