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________________ ४४३ ज्ञानसार भावना प्रदर्शित करते रहना । कर्माधीन जीवों का एक गति से दूसरी गति में निरन्तर आवागमन होता रहता है, तब भला किसकी जाति शाश्वत् रहती है ? अतः मैं जाति का अभिमान नहीं करूंगा। यदि शील अशुद्ध है तो कुलाभिमान किस काम का? साथ ही अगर मेरे पास गुण-वैभव का भंडार है, तो भी कुलाभिमान किस काम का ? KA हड्डी-मांस और रूधिर जैसे गंदे पदार्थों के भंडारसदृश और व्याधि वृद्धावस्था से ग्रस्त इस शरीर के सौन्दर्य का भला गर्व किसलिये? बलशाली क्षणार्ध में निर्बल बन जाता है और निर्बल बलशाली ! बल अनियत है, शाश्वत् नहीं है... तब उस का गर्व किसलिये ? व भौतिक पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति कर्माधीन है तब लाभ में फलकर कुप्पा क्यों होना ? KO जब मैं पूर्वधर महान् आत्माओं के अनन्त विज्ञान की कल्पना करता हूँ, तब उन की तुलना में अपनी बुद्धि तुच्छ लगती है । अतः बुद्धि का अभिमान किसलिये ? और तप का घमंड ? अरे बाह्य-ग्राभ्यन्तर तपश्चर्या की घोर और उग्र माराधना करने वाले तपस्वी-महर्षियों का दर्शन करता हूँ,तब अनायास मैं नतमस्तक हो जाता हूँ। र ज्ञान का मद हो ही नहीं सकता । जिस का आधार ग्रहण कर पार उतरना है, भला उसका आलंबन लेकर बना कौन चाहेगा ? श्री स्थूलिभद्रजी का ज्वलन्त उदाहरण भूलकर भी ज्ञानमद नहीं करने देगा। यह है अष्टमंगल का आलेखन ! सुन्दर, सुगम और सरल! प्रातमदेव के पूजन में इस विधि का उपयोग सही अर्थ में होना चाहिए । अब हमें धूप-पूजा करनी है । इस के लिए ऐसा-वैसा धूप नहीं चाहिये । कृष्णागरु धूप ही चाहिए । * प्रष्ट मंगल में श्रीवत्स, स्वस्तिक, नन्दावर्त, मत्स्ययुगल, दर्पण, भद्रासन, सरावला और कुभ का समावेश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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