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________________ तृप्ति ११३ पीत्वा ज्ञानामतं भक्त्वा, क्रियासुरलताफलम् । साम्यताम्बूलमास्वाद्य, तृप्ति यात परां मुनिः ॥ १ ॥७३ ।। अर्थ :- ज्ञान रुपी अमृत का पान कर और क्रिया रुपी कल्पवृक्ष के फल खाकर, समता रुपी तांबूल चखकर साधु परम तृप्ति का अनुभव करता है । विवेचन : परम तृप्ति, जिसको पाने के बाद कभी अतृप्ति की आग प्रदीप्त न हो, वह पाने का कैसा तो सुगम/सरल और निर्भय मार्ग बताया है ! हमेशा ज्ञानामृत का मधुर पान करो, क्रियासूरलता के फलों का रसास्वादन करो और तत्पश्चात् उत्तम मुखवास से मुंह को सुवासित करो। ऐसे अलौकिक ज्ञानामृत को छोड़कर भला, किसलिये जगत के भौतिक पेय का पान करने के लिये ललचाना ? अपने आप में मलिन, पराधीन और क्षणार्ध में विलीन हो जाने वाले भौतिक पेय पदार्थों का पान करने से जीवात्मा का मन राग-द्वेष से मलिन बनता है । साथ ही इन पेय पदार्थों की प्राप्ति हेतु प्रायः अन्य जीवों की गुलामी, अपेक्षा और खुशामदखोरी करनी पड़ती है। अवांछित लोगों का मुंह देखना पड़ता है । और यदि मिल भी जाये तो उनका सेवन क्षणिक सिद्ध होता है । पुन: इन की प्राप्ति के लिये पहले जैसी ही गुलामी और चाटुकारिता ! तब कहीं घंटे दो घंटे का आनन्द ! ऐसी परिस्थिति में संसार के विषचक्र में फंसा जीव भला, किस तरह अन्तरंग/प्रान्तरिक प्रानन्द-महोदधि में गोते लगा सकता है ? उसके लिये प्रायः यह सब असंभव है । इसके बजाय बेहतर है कि भौतिक पेय पदार्थों का पान करने की लत को ही छोड़ दिया जाय । क्षणिक माह को त्याग दिया जाए । मेरे आत्मदेवता ! जागो, कुंभकर्णी नींद का त्याग करो और ज्ञान से छलकते अमृतकुभ की तरफ नजर करो । इसे अपनाने के लिये तत्पर बनो । प्रस्तुत अमृत-कुभ को निरन्तर अपने पास रखो और जब कभी तृषा लगे, तब जी भर कर इसका पान करो। यह करने से ना ही राग-द्वष से पलिन बनोगे, ना ही स्वार्थी लोगों की खुशामद करनी पड़ेगी और ना ही इस संसार में दर-दर भटकने की बारी पाएगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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