________________
ज्ञानसार
की तरह अल्प काल के लिये रहने वाली अस्थायी है । यह सब तो पुण्य-कर्म से उधार में पाया हआ है । अतः समय के रहते इस उधार की पूंजी को वापिस लौटा दो तो बेहतर है। इसी में तुम्हारी इज्जत और बड़प्पन है । फिर भी तुम सचेत नहीं हुए. खुद ही स्वेच्छा से इसका त्याग नहीं किया तो समय आने पर कर्मरुपी खलपुरूष इसे तुमसे छीनते देर नहीं करेगा । और तब परिस्थिति बड़ी दुर्भर और भयंकर होगी । कर्म को जरा भी शर्म नहीं पाएगी अपनी अमानत वसूल करने में, जगत में तुम्हें नंगा करने में । वह कदापि यह नहीं सोचेगा कि 'इस समय इसे (तुम्हें) धनधान्यादि की अत्यन्त आवश्यकता है, अतः छोड़ दिया जाए, किसी अन्य प्रसंग पर देखेंगे....।' वह तो निर्धारित समय पर अपनी वस्तु लेकर ही रहेगा। फिर भले ही तुम लाख अपना सर पीटो, चिल्लायो, चिखो अथवा आक्रन्दन करो । अतः कर्मोदय से प्राप्त ऋद्धि-सिद्धि, ख-समृद्धि को ही पूर्णता न मानो, यथार्थ न समझो । उसके प्रति आसक्त न रहो कि बाद में पश्चात्ताप के प्रांसू बहाने पड़े।
आत्मा की जो अपनी समृद्धि है, वही सही पूर्णता है, वही वास्तविक है । उसे कोई माँगने वाला नहीं है । माणेक-मुक्तादि रत्नों की चमककांति का कभी लोप नहीं होता । उसे कोई ले नहीं सकता, छीन नहीं सकता और ना ही चुरा सकता है ।
यह निविवाद तथ्य है कि आत्मा की वास्तविक संपत्ति-समृद्धि है :- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभिता, परम शान्ति आदि । उसे प्राप्त करने हेतु और प्राप्त संपत्ति-समृद्धि को सुरक्षित रखने के लिये हमें भगीरथ पुरुषार्थ करना है ।
अवास्तवी विकल्पैः स्यात्, पूर्णताब्धेरिवोमिभिः ।
पूरानन्दस्तु भगवान्, स्तिमितोदधिसन्निभ: ॥३॥ अर्थ : तरंगित लहरों के कारण जैसे समुद की पूर्णता मानी जाती है, ठीक
उसी तरह विकल्पों के कारण आत्मा की पूर्णता मानी जाती है । लेकिन वह अवास्तविक है । जब कि पूर्णानन्दस्वरुप भगवान स्वयं में
अथाह समुद्र सदृश स्थिर-निश्चल है । विवेचन : अथाह समुद्र की पूर्णता उसकी लहरों से मानी जाती है, ठीक उसी भाँति आत्मा की पूर्णता उसके विकल्पों की वजह से मानी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org