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________________ क्रिया परमार्थ समझकर क्रियान्वित करता हो तो उसकी बात अवश्य गौर करने जैसी है। लेकिन आमतौर पर आत्म-विशुद्धि के लिये जो क्रियायें करनी पड़ती हैं, उन क्रियाओं में आने वाली अनेक बाधायें सहने में जो सर्वथा असमर्थ और भयभीत होते हैं, वे लोग पवित्र क्रियाओं का अपलाप करते हैं और उन क्रियाओं का परित्याग कर पाप-क्रियाओं की गलियों में भटकते हुए पतन की गहरी खाई में गिर जाते हैं । स्वानुकलां क्रियां काले, ज्ञानपुर्णोऽप्यपेक्षते । प्रदीप : स्वप्रकाशोऽपि, तैलपूर्त्यादिकं यथा ॥३॥६७।। अर्थ :- जिस तरह दीप स्वयं प्रकाशस्वरुप होते हुए भी उसमें (प्रज्वलित रखने के लिये) तेल-वगैरह की जरूरत होती है। ठीक उसी तरह प्रसंगोपात पूर्णज्ञानी के लिये भी स्वभाव स्वरूप कार्य के अनुकूल क्रिया की अपेक्षा होती है । विवेचन :- जब तक सिद्धि प्राप्त न हो और साधक-दशा विद्यमान है, तब तक क्रिया की आवश्यकता होती है । अलबत्त, साधना की विभिन्न अवस्था में उनके लिये अनकल ऐसी भिन्न-भिन्न क्रियाओं की अपेक्षा होती है । अर्थात् केवलज्ञानी ऋषि-महर्षियों को भी क्रिया की आवश्यकता रहती ही है । स्वभाव को पुष्ट करने के लिये समान्यतः क्रिया की आवश्यकता रहती है । उचित समय में उचित क्रिया जरूरी है । सम्यक्त्त्व की भूमिका में रही विवेकी आत्मा समकित के लिये परमावश्यक ६७ प्रकार के व्यवहार का विशुद्ध पालन करती है । उसका आदर्श होता है देशविरति और सर्वविरति का । देशविरति रूप श्रावकजीवन की कक्षा तक पहुँचे जीव को बारह व्रत की पवित्र क्रियाओं का आचरण करना होता है । क्योंकि उसका अन्तिम लक्ष्य सर्वविरतिमय श्रमणजीवन प्राप्त कर कर्मों की पूर्ण निर्जरा करना होता है। ___ सर्वविरतिमय साधुजीवन में रही साधक आत्मा को ज्ञानाचारादि आचारों का परिपालन और दशविध यतिधर्म, बाह्य-अभ्यन्तर बारह प्रकार के तपादि क्रियाओं का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है ।क्षपकश्रेणी पर चढ़ते समय शुक्लध्यान की क्रिया करनी पड़ती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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