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मध्यस्थता
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व्रतानि चीर्णानि तपोऽपि तप्तं कृता प्रयत्नेन च पिण्डविशुद्धिः। अमूत्फलं यत्तु न निहनवानां,
असद्ग्रहस्यैव हि सोऽपराधः।। "व्रत, तप, विशुद्ध, भिक्षावृत्ति........क्या नहीं था? सब था ? परंतु वह निहनवों के लिये निष्फल गया । क्यों भला ? असद् प्राग्रह के अपराध के कारण !" अतः असद् अाग्रह का परित्याग कर मध्यस्थ दृष्टि वाले बनना चाहिए !
श्रामे घटे वारि भतं यथा सद्, विनाशयेत्स्वं च धटं च सद्यः। असद्ग्रहग्रस्तमतेस्तथैव,
श्रुतप्रदत्तादुभयोविनाश:।। “यदि मिट्टी के कच्चे धडे में पानी भर दिया जाए तो ? घडा और पानी दोनों का नाश होता है ! ठीक उसी भाँति असद् आग्रही जीव को श्रतज्ञान दिया जाए तो ? नि:संदेह ज्ञान और उसे ग्रहण करनेवाला-दोनों का विनाश होते देर नहीं लगेगी । असद् प्राग्रह का परित्याग कर, मध्यस्थ दृष्टि बाले बन, परम तत्त्व का अन्वेषण करना चाहिए । तभी परम हित होगा ।
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