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________________ उपसंहार ५०३ रहेगा । ज्ञानसार की यही तो महत्ता है ! ज्ञानसार द्वारा किया गया कर्म-क्षय ही वास्तव में सार्थक है। हाँ, सिर्फ क्रिया-कांड के माध्यम से कर्म-क्षय करने में श्रद्धा रखनेवालों के लिए यह तथ्य अवश्य विचारणीय है ! भले ही वे अशुभ कर्मों का क्षय करते हों, लेकिन आश्रवों की वृष्टि होते ही पुनः अशुभ कर्म पनप उठेंगे ! अत: ज्ञान के माध्यम से कर्मक्षय करना सीखो । ___ अरे भई, तुम अपने ज्ञानानन्द में सदा-सर्वदा मग्न रहो ! ज्ञान की मौज-मस्ती में खोये रहो ! इधर कर्म-क्षय निरन्तर होता ही रहेगा । तुम नाहक चिंता न करो कि 'मेरा कर्म-क्षय हो रहा है अथवा नहीं ?' इस के बजाय निरन्तर निर्भय होकर ज्ञानानन्द के अथाह जलाशय मे सदा गोते लगाते रहो । ज्ञानपूतां परेऽप्याहुः क्रियां हेमघटोपमाम् । युक्त तदपि तद्भाव न यद् भग्नाऽपि सोज्झति ॥६॥ अर्थ : दूसरे दार्शनिक भी ज्ञान से पवित्र क्रिया को सुवर्ण-घट कहते हैं, वह भी योग्य है। क्योंकि खंडित क्रिया भी, क्रिया-भाव का त्याग नहीं करती ! (सुवर्ण-घट के खंडित हो जाने के भी सुवर्ण तो उस में __ रहता ही है।) विवेचन : एक सुवर्ण-घट है, मानो कि वह खंडित हो गया, तो भी उस में सोना तो रहता ही है ! सोना कहीं नहीं जाता । इस तरह सुवर्ण-घट की उपमा से विद्वान् ग्रन्थकार हमें ज्ञानयुक्त क्रिया का महत्व समझाते हैं । ज्ञानयुक्त क्रिया सुवर्ण-घट के समान है । समझ लो कि क्रिया खंडित हो गयी, उस में किसी प्रकार का विक्षेप आ गया, फिर भी सुवर्ण-समान ज्ञान तो शेष रहेगा ही। क्रिया का भाव तो बना रहेगा ही, ज्ञानयुक्त क्रिया के माध्यम से जिन कर्मों का क्षय किया, दुबारा उनके उदय होने का प्रश्न ही नहीं उठता । मतलब, कर्म-बंधन होना असंभव है । अतः कोडाकोडी सागरोपम से अधिक स्थितिवाले कर्मों का बंधन नहीं होगा । सुवर्ण-घट समान ज्ञानयुक्त क्रिया का महत्व बौखदर्शन आदि भी स्वीकार करते हैं। ज्ञानहीन क्रिया का विधान- समर्थन विश्व का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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