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________________ २६२ ज्ञानसार अब तो आपको किसी बात की न्यूनता का पनुभव नहीं होगा न ? वह कोई काल्पनिक बात नहीं है, बल्कि वास्तविक हकीकत है। प्राप इस पर गंभीरता से विचार कर इस बात को प्रात्मसात् करना । परिणामतः गुणसष्टि का सर्जन करने के लिए आप प्रोत्साहित होंगे और कल्पित सष्टि की रचना से मुक्त हो जाएंगे । रत्नस्त्रिभिः पवित्रा या श्रोतोभिरिव जाह्नवी । सिद्धयोगस्य साऽप्यहत्पदवो न दवीयसी ॥८॥१६०।। अर्थ : जिस तरह तीन प्रवाहों के संगमस्वरुप पवित्र गंगा नदी है, ठीक उसी तरह, तीन रत्नों से युक्त पवित्र ऐसा तीर्थ कर पद भी मिद्ध योगी साधु से अधिक दूर नहीं । विवेचन :- खैर, आप ब्रह्मा शंकर अथवा श्री कष्ण बनना नहीं चाहते, देवेन्द्र बनने का या चक्रवर्तीत्व का शौक नहीं, लेकिन तीर्थंकर-पद की तो चाह है न ? तीर्थकर-पद ! सम्यग ज्ञान, सम्यग दर्शन और सम्यक चारित्र : इन तीन रत्नों से पवित्र पद ! क्या आप इस पद के चाहक हैं ? यह भी मिल सकता है ! लेकिन इसके लिए आपको ढेर सारी प्राथमिक तैयारियां करनी पड़ेगी। और उसके लिए दो बातें मुख्य हैं : (१) भावना और (२) आराधना । मन में हमेशा ऐसी भावना होनी चाहिए कि, 'मोहान्धकार में भटकते और दुःखी-पीडित जीवों को मैं परम सुख का मार्ग बताऊं, उन्हें दुःख से मुक्ति दिलाऊँ....समस्त जीवों को भव-बंधन से आजाद करूँ !' इस भावना के साथ बीस स्थानक तप की कठोर आराधना होनी चाहिए। इन दो बातों से तीर्थंकर-पद की नींव रखी जाती है और तीसरे भव में उस पर विशाल इमारत खडी हो जाती है ! तीर्थकर नामकर्म निकाचित करते ही आप तीर्थंकर बन गये समझो! इस भावना और आराधना में प्रगति होने पर; गुरू भक्ति और ध्यान योग के प्रभाव से आप स्वप्न में तीथंकर भगवान का दर्शन करोगे! विश्व का सर्वोत्तम श्रेष्ठ पद ! तीर्थकरत्व की दिव्यातिदिव्य समद्धि ! समवसरण की अद्भुत रचना, अष्ट महाप्रतिहारी की शोभा, वाणी के पैंतीस गुण और चौंतीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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