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________________ सर्वसमृःि २८१ हाथ मलते रह जाते हैं ! अर्थात् उन्हें निराशा ही गले लगानी पडती है । अतः बाह्यदृष्टि को तो चूर-चूर ही कर दो । हाँ, अब भंडार के दर्शन हुए ! अस्पष्ट और क्षणिक दर्शन ! परवाह नहीं अस्पष्ट ही सही, आखिर दृष्टिगोचर तो हमा न ? अब अपने हाथ तनिक लम्बे कर आगे बढो, उत्तरोत्तर प्रकाश की ज्योत बड़ी होती जाएगी...हो गयी न ? अब तो भंडार के स्पष्ट दर्शन हो गये न ? पूरी शक्ति से उसे खोल दो । न जाने कैसी अद्भुत समृद्धि से वह भरा पड़ा है ! अब बताइए, तुम्हें देश-परदेश में भटकने की गरज है ? सेठसाहुकारों की गुलामी करने की जरूरत है ? वाणिज्य, व्यापार करने की आवश्यकता है ? पुत्र-पौत्रादि परिवार के पास जाने की इच्छा है ? उन सब का स्मरण भी हो पाता है क्या ? जो भी है, भव्य और अद्भुत है न ? लेकिन सावधान !बाह्यदृष्टि के खलते ही यह सब अलोप होते देर न लगेगी और परिणामतः पुन: गांव-नगर की गली कूचों में भटकते भिखारी बन जाओगे । समाधिनन्दनं धैर्य दम्मोलि: समताशचिः । ज्ञानं महाविमानं च वासवधीरियं मुनेः ॥२॥ १५४ ।। अर्थ : समाधिरूपी नंदनवन, धंय रूपी वज्र, समता रूपी इन्द्राणी और स्वरूप-अवबोध रूपी विशाल विमान, इन्द्रकी यह लक्ष्मी मुनि को होती है ! विवेचन :- मुनिराज आप स्वयं इन्द्र हैं ! ___ आपकी समृद्धि और शोभा का पार नहीं, अपरम्पार है ! आपको किसी बात की कमी नहीं, ना ही आप दीन हीन और दयनीय हैं ! देवराज इन्द्र की समस्त समृद्धि के श्राप स्वामी हैं । आइए, तनिक अलौकिक समृद्धि के दर्शन करीये : ...... यह रहा आपका नंदनवन...! नंदनवन कैसा सुरम्य, हरियाली से युता, आह्लादक और मनोहारी है ! ध्याता , ध्यान और ध्येय के मिलन स्वरुप समाधि के नंदनवन में आपको नित्यप्रति विश्राम करना है। इस में प्रवेश करने के पश्चात् पापको अन्य किसी चीज की याद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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