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________________ ज्ञानसार से वही स्पृहा का रूप धारण कर लेती है ! ऐसी स्थिति में स्पृहा आत्म-प्रदेश में विस्फोट कर देती है ! लेकिन उपाध्यायजी महाराज सर्वथा उसका निषेध नहीं करते, बल्कि उसका गौरवपूर्ण उल्लेख भी करते हैं ! वे स्पृहा की एकांत हेयता का इन्कार कर उसकी उपादेयता का भी वर्णन करते नहीं अघाते ! वह कहते हैं : अनात्म-रति से स्फुरित स्पहा हेय होती है, जब कि आत्म-रति से स्फुरित स्पृहा उपादेय होती है ! ___ व्यक्ति के जीवन में अनेक प्रकार की स्पृहायों के द्वन्द्व निरंतर चलते रहते हैं ! जब उसके मन में आत्मोत्थान की अभिलाषा जगती है तब उसे सद्गुण की स्पृहा होती है, सम्यग्ज्ञान की स्पृहा होती है, संयम के लिए आवश्यक उपकरणों की स्पृहा होती है और होती है संयम में सहायक साधु/संतों की कामना....! .... शासनसंरक्षण की तीव्र इच्छा, समग्र जोवों की कल्याण-भावना ! साथ ही मोक्षप्राप्ति की उत्कट चाहना होतो है ! प्रस्तुत सभी स्पृहाएँ उपादेय मानी जातो हैं ! क्यों कि इन सब आकांक्षाओं के मूल में 'प्रात्मरति' जो होती है ! ऐसी स्पृहाएँ, कामनाएँ, अभिलाषाएँ कि जिनके मूल में अनात्मरति है, वह दिखावे में भले हो तप, त्याग, और संयममय हो, ज्ञान और ध्यान की हो, भक्ति और सेवाभाव को हो, लेकिन सभी हेय हैं, सर्वथा त्याज्य हैं ! " मैं तपाराधना करूँगा तो मान-सन्मान मिलेगा ! मैं ज्ञानी-ध्यानी बनंगा तो सर्वत्र मेरा पूजा-सत्कार होगा ! मैं भक्ति-सेवाव्रती हँगा तो लोक में वाह-वाह होगी !” इन स्पृहाओं के मूल में 'अनात्मरति' कार्यशील हैं ! अतः ऐसी स्पहाओं को पास भी आने नहीं देना चाहिए ! बल्कि उन्हें हमेशा के लिए निकाल बाहर करना चाहिए ! फलस्वरूप, किसी भी प्रकार की स्पृहा पैदा होते ही साधकवर्ग को विचार करना चाहिए कि उक्त स्पहाओं से कहीं अनात्मरति का पोषण तो नहीं हो रहा है ? अन्तर्मुख होकर इसके बारे में सभी दृष्टि से विचार करना परमावश्यक है ! जव तब इसके सम्बन्ध में अन्तर की गहराई से बिचार नहीं होगा, तब तक अनात्म-रति से युक्त स्पृहाएँ, हमारे आत्म-गह को भग्नावशेष में परिवर्तित करते विलम्ब नहीं करेंगो ! भूलो भमत, तकाल में भी इसी के कारण हमारा सत्यानाश हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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