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परिग्रह-त्याग
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विवेचन:-परिग्रह-अपरिग्रह की न जाने कैसी मार्मिक व्याख्या की है। कितनी स्पष्ट और निश्चित ! धरातल पर ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे हम परिग्रह अथवा अपरिग्रह की संज्ञा दे सकते हैं ? मच्र्छा यह परिग्रह और अमूच्र्छा अपरिग्रह । संयम-साधना में सहायक पदार्थ अपरिग्रह और बाधक पदार्थ परिग्रह । पर-पदार्थों का त्याग किया । धन-संपत्ति, बंगले-मोटर वगैरह को सदा के लिये तज कर संयम-जीवन अंगीकार किया,श्रमण बने । अरे, शरीर पर वस्त्र नहीं और भोजन के लिये पात्र....! और तुमने समझ लिया कि 'मैं अपरिग्रही बन गया।' ठीक है, क्षणार्ध के लिये तुम्हारी बात स्वीकार कर, पूछना चाहता हूँ-"जिन पर-पदार्थों का तुमने त्याग किया, उनके लिये तुम्हारे हृदय में राग-द्वेष की भावना पैदा होती है या नहीं ? अरे, शरीर तो पर पदार्थ जो ठहरा! जब वह रोगग्रस्त बीमार होता है, तब उसके प्रति क्या ममत्व जागत नहीं होता? शरीर को तज तो नहीं दिया ? पर-भाव का त्याग तो नहीं किया ? तनिक गंभीरता से सोचो, विचार करो कि वाकइ तुम अपरिग्रही बन गये ? भूलकर भी कभी स्थूल दृष्टि से विचार न करना, बल्कि सूक्ष्म दृष्टि से चिन्तन करना.... । तभी परिग्रह-अपरिग्रह की व्याख्या साफ-साफ समझ में आएगी।
__ मुनिराज ! ओ निर्मोही..निर्लेप मुनिराज ! परिग्रह को स्पर्श करने वाली वायु भी तुम्हें छु नहीं सकती... परिग्रह की पर्वतमालाओं का बोझ ढोंते श्रीमन्त/धनवान तम्हारी प्रदक्षिणा कर छूमंतर होने में सदा तत्त्पर होते हैं....तुम्हारे मन में परिग्रह का आग्रह नहीं, ना ही भौतिक.... सांसारिक पदार्थों की रंच मात्र स्पृहा ! तुमने जिस परिग्रह का मनवचन-काया से त्याग किया है, उसका मूल्यांकन भी तम्हारे मन पर प्रतिबिंवित नहीं। शरीर को ढंकने वाले वस्त्र, भिक्षार्थ पात्र और स्वाध्याय हेतु संग्रहित पुस्तकों पर, 'ये मेरे हैं, ऐसा ममत्व भी नहीं। अन्तरंग दृष्टि से तुम संयम के उपकरणों से भी निर्लेप हो।
हाँ, राह भटकते, दीन-हीन बन भीख मांगकर जीवन बसर करते.... विविध व्यसनों से घिरे भिखारियों को कभी देखा है ? जिन के पास 'परिग्रह' कहा जाए, ऐसा कुछ भी नहीं होता । और यदि है तो भी
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