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ज्ञानसार
नित्यशुच्यात्मताख्यातिरनित्याशुच्यनात्मसु ।
अविद्या तत्त्वधीविद्या, योगाचार्यः प्रकीर्तिता ॥१॥१०॥ अर्थ : योगाचार्यों ने बताया है कि अनित्य, अशुचि और आत्मा से भिन्न
पुद्गलादि में नित्यत्व, शुचित्व प्रौर अत्मत्व (ममत्व) की बुद्धि
अविद्या कहलाती है । तात्त्विक बुद्धि विद्या कहलाती है । विवेचन : जो पुद्गल अनित्य हैं, अशुचि-अपवित्र हैं और आत्मतत्व से भिन्न हैं, उन्हें तुम नित्य, पवित्र और आत्मतत्त्व से अभिन्न मान रहे हो, तब समझ लेना चाहिए कि तुम पर 'अविद्या' का प्रबल प्रभाव है । और जब तक पुद्गल-द्रव्यों को नित्य पवित्र एवं आत्मतत्त्व से अभिन्न मानते रहोगे तब तक तुम तत्वज्ञानी नहीं, आत्मज्ञानी नहीं, बल्कि अविद्या से आवृत्त/अज्ञान से अभिभूत, साथ ही विवेकभ्रष्ट ऐसी एक पामर जीवात्मा हो । न जाने पामर जीवात्मा की यह कैसी दुर्दशा-करूणाजनक स्थिति है ?
0 परसंयोग को नित्य समझता है ! ० अपवित्र शरीर को पवित्र समझता है !
७ जड -पुद्गल द्रव्यों को अपना समझता है ! यही अहंबुद्धि और ममबुद्धि अविद्या कहलाती है ! मौन में यही अविद्या बाधक है । साधुता की साधना में अविद्या एक विध्न है । जब तक तुम इस पर विजय प्राप्त नहीं करोगे, तब तक साधुता की सिद्धि असंभव है । युग-युगान्तर से जो कर्मों का सितम और नारकीय यंत्रणाएं सहन करनी पड़ी हैं, इस का मूल यही अविद्या है । अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, और भिन्न को अभिन्न मानने की वृत्ति अनादिकाल से चली आ रही है । उस वृत्ति का विनाश करना, उसे नष्ट-भ्रष्ट करना सरल काम नहीं है, ठीक वैसे दृढ़ संकल्प हो तो असंभव भी नहीं है ।
* आत्मा को हमेशा नित्य समझो, * आत्मा को पवित्र समझो, ॐ आत्मा में ही 'अहं'बुद्धि का प्रादुर्भाव करो।
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