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ज्ञानसार
अर्थ : जहाँ अधिकाधिक प्रमाण में विवेकरुपी तोरणमाला बांधी गई है, और
जहां उज्वलता को विस्तृत करते हृदयरूपी भवन में समयानुकूल मधुर गीत की उच्च ध्वनि प्रसरित है ! वहां पूर्णानन्द से ओतप्रोत आत्मा का, उसके स्वाभाविक सौभाग्य की रचना से प्रस्तुत ग्रंथ की रचना के बहाने क्या चारित्ररुप लक्ष्मी के आश्चर्यकारक पाणिग्रहण-महोत्सव का
शुभारंभ नहीं हुआ ? विवेचन : क्या तुमने पूर्णानन्दी आत्मा का चारित्र-लक्ष्मी के साथ लग्नोत्सव कभी देखा है ? यहाँ ग्रन्थकार हमें वह लग्नोत्सव बताते हैं ! ध्यान से उसका निरीक्षण करो, देखो :
हर जगह, हर गली और हाट-हवेली में सर्वत्र लगाये तोरणों को देखो । ये सब विवेक से तोरण हैं, और यह रहा लग्न-मंडप ! यह हृदय का विशाल मंडप है ! यह प्रकाश-पुंज सा देदीप्यमान हो जगमगा रहा है ! यहाँ मधुर कंठ और राग-रागिणी से युक्त लग्न-गीतों की चित्ताकर्षक लहरियाँ वातावरण में व्याप्त हैं ! उसमें ३२ मंगल गीत हैं, और आतमराम कैसा आनन्दातिरेक से डोल रहा है !
__ 'ज्ञानसार' ग्रन्थ-रचना का तो एक बहाना है । इस के माध्यम से पूर्णानन्दी आत्मा ने चारित्ररुपी लक्ष्मी के साथ लग्न....महोत्सव का सुंदर, सुखद आयोजन किया है । देवी-देवता तक इा करे ऐसा उसका अद्भुत सौभाग्य है !
इस प्रसंग पर ग्रन्थकार पूज्य उपाध्यायजी महाराज फरमाते हैं कि इस ग्रन्थ-रचना के महोत्सव में मैंने चारित्र स्वरुप साक्षात् लक्ष्मी के साथ पाणीग्रहण किया है !'
सचमुच यह महोत्सव, हर किसी को विस्मित और आश्चर्य चकित कर दें, ऐसा अद्भुत है !
भावस्तोमपवित्रगोमयरसः लिप्तैव भूः सर्वतः, संसिक्ता समतोदकैरथ पथि न्यस्ता विवेकस्रजः । अध्यात्मामृतपूर्णकामकलशश्चक्नेऽत्र शास्त्रे पुरः
पूर्णानन्दधने पुरे प्रविशति स्वीयं कृतं मंगलम् ।। अर्थ : प्रस्तुत शास्त्र में भाव के समूहस्वरुप गोबर से भूमि पोती हुई ही है
और समभावरुपी शीतल जल के छिडकाव से युक्त है । अत्र-तत्र (मार्ग
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