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________________ २७४ तुरगरथेभनरावृतिकलितं दधतं बलमस्खलितम् : हरति यमो नरपतिमपि दीनं मैनिक इव लघुमीनम् || विनय विधीयतां रे श्री जिनधर्मः शरणम् जिनके पास हिनहिनाता अश्वदल था, मदोन्मत्त हाथियोंका प्रचंड़ सैन्य था और था अपूर्व शक्ति का अभिमान ! ऐसे रथी-महारथी महान् शक्तिशाली राजा-महाराजाओं को यमराज चुटकी में उठा ले गए ! जैसे मछुमारा एकाध मछली को ले जाता है ! उस समय उन राजामहाराजाओं की कैसी दयनीय दशा होती होगी ? ज्ञानसार क्षणिक, भययुक्त और पराधीन पुद्गल - जन्य ऐश्वर्य, तत्त्वदृष्टि उत्तम पुरुष को विस्मित नहीं कर सकता ! क्योंकि उनके लिए ऐसा ऐश्वर्य कोइ मूल्य नहीं रखता । उन्हें सिर्फ चिदानंदमय आत्मस्वरुपका मूल्यांकन होता है । वे आत्मा के अविनाशी, अक्षय, अनंत, अगोचर, अभय एवं स्वाधीन ऐश्वर्य के लिए दिन-रात प्रयत्नशील रहते हैं । जिस ऐश्वर्य को बहिरष्टि मनुष्य शिरोधार्य करने में स्वयं को गौरवान्वित समझता है, उसे अंतर्दृष्टि महात्मा पैरों तले कुचलने में ही अपना हित, परमहित मानता है । भस्मना केशलोचेन वपुर्धृतमलेन वा । महान्तं बाह्यग् वेत्ति चित्साम्राज्येन तत्त्ववित् ||७|| १५१ ।।. अर्थः बाह्यदृष्टि मनुष्य शरीर पर राख मलनेवाले को, केशलोच करने वाले को अथवा शरीर पर मल धारण करने वाले को महात्मा समझता है, जबकि तस्वदृष्टि मनुष्य ज्ञान की गरीमा वाले को महान मानता है । विवेचनः महात्मा ! कौन महात्मा ? बाह्यदृष्टि जीव तो शरीर पर भस्म मलनेवाले को, सिरपर जटा बढाने वाले को, वस्त्र के नाम से केवल लंगोटी धारण करने वाले को महात्मा मानता है । मस्तक पर मुंडन नहीं बल्कि लुंचन किया हो, श्वेत वस्त्र धारण किये हो, हाथ में रजोहरण और दंड लिए हुए हो, ऐसे व्यक्तिविशेष को 'महात्मा' के रूप में पहचानता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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