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ज्ञानसार
ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं त्रयं यस्यैकतां गतम् !
मुनिरनन्यचित्तस्य तस्य दुःखं न विद्यते ॥१॥२३३।। अर्थ :- जिसे ध्यान कान वाला, ध्यान धरन योग्य और ध्यान-जीनो की
एकता प्राप्त हुई है (साथ ही) जिमका चित्त अन्यत्र नहीं है, ऐसे
मुनिवर को दु:ख नहीं होता ! विनेचन : मुनिवर्य ! आप को भला दुःख कैसा? अाप दुःखी हो ही नहीं सकते | आप तो इस विश्व के श्रेष्ठ सुखी मानव हैं ।
पांच इन्द्रियों का कोई भी विषय आपको दुखी नहीं कर सकता। आप ने तो वैषयिक सुखों की प्राप्ति के बजाय उसके त्याग में ही सुख माना है न ? वैषयिक सुखों को अप्राप्ति के कारण ही सारी दुनिया दुःख के चित्कार कर रही है। जबकि आप ने तो, अपने जीवन का आदर्श ही सुख-त्याग को बना लिया है ! इन्द्रियों के आप स्वामी हो.. आपने पांचो इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है....! आप की आज्ञा के बिना उनकी कोई हरकत नहीं ! ठीक वैसे ही आपने अपने मन को भी वैषयिक सुखों से निवृत्त कर दिया है।
सांसारिक भावों से निवत्त मन सदा-सर्वदा ध्यान में लीन रहता है ! ध्याता, ध्येय और ध्यान की अपूर्व एकता आपने सिद्ध कर ली है.... फिर भला, दु:ख कैसा और किस बात का ? ।
मुनिराज ! आपकी साधना, वैषयिक सुखों से निवृत्त होने की साधना है। जैसे जैसे आप इन सुखों से निस्पृह बनते जायँ वैसे वैसे कषायों से भी निवृत्ति ग्रहण करते जाय । आप यह भलीभाँति जानते हैं कि वैषयिक सुखों की स्पृहा ही कषायोत्पत्ति का प्रबल कारण है। शब्द, रूप, रस, गंध, और स्पर्श के सूखों की इच्छा को ही नामशेष करने के लिए आपकी आराधना है। अतः आप अपने मन को एक पवित्र तत्त्व से बांध लें! ध्येय के ध्यान में आप आकंठ डूब जाएँ ! साथ ही अपनी मानसिक सृष्टि में इस महान् ध्येय के अतिरिक्त किसी को घुस पैठ न करने दें।
हाँ, यदि आप का मन अपने ध्येय से हट गया और किसी अन्य विषय पर स्थिर हो गया तो आप का सुख छिनते देर नहीं लगेगी !
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