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क्रिया..
ज्ञानी क्रियापर: शान्तो, भावितात्मा जितेन्द्रियः ।
स्वयं तीरों भवाम्भोधेः, परांस्तारयितु क्षमः ।।१।।६।। अर्थ : सम्यग् ज्ञान से युक्त, क्रिया में तत्पर, उपशम युक्त, भावित और
जितेन्द्रिय (जीव) संसार रूपी समुद्र से स्वयं पार लग गये हैं और
अन्यों को पार लगाने में समर्थ हैं। विवेचन : मानव-जीवन का श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है - भवसागर से स्वयं पार उतरना और अन्यों को पार लगाना ।
यदि गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्रा सदृश भौतिक नदियों को पार करने के लिये ज्ञान और क्रिया की आवश्यकता है, तब भव के भीषण, रौद्र और तूफानी समुद्र को पार करने के लिये भला ज्ञान और क्रिया की आवश्यकता क्या नहीं है ? आवश्यकता है और सौ बार है । लेकिन उसकी आवश्यकता तभी महसूस होती है, जब भवसागर भीषण, रौद्र और तूफानी लगता हो । जब तक भवसागर प्रशान्त, सुखदायक एवं सुन्दर, अति सुन्दर दिखायी देता है, तब तक जीवात्मा को ज्ञान और क्रिया का महत्व समझ में नहीं आता । जीवन में उस की आवश्यकता का यथार्थ ज्ञान नहीं होता ।
भवसागर से पार लगने और अन्य जीवों को पार लगाने हेतु यहाँ निम्नांकित पाँच बातें कही गयी हैं :
१. ज्ञानी : जिस भवसागर को पार करना है, उसकी भीषणता की जानकारी लिये बिना पार उतरना संभव नहीं है । साथ ही, जिनके आधार से तिरना है, उन कृपानिधि परमात्मा और करुणामय गुरुदेव का वास्तविक परिचय प्राप्त किये बिना कैसे चलेगा ? जिस में सवार होकर पार उतरना है, उस संयम-नौका की संपूर्ण जानकारी भी हासिल करना जरुरी है । साथ ही सागर-प्रवास के दौरान आनेवाली नानाविध बाधायें, विघ्न और संकट, उस समय अपेक्षित सावधानी, सुरक्षा-व्यवस्था और आवश्यक साधन-सामग्री का ज्ञान भी हमें होना चाहिए ।
२. क्रियापर : भवसागर पार उतरने के लिये देवाधिदेव जिनेश्वर भगवंत ने जो क्रियायें दर्शायी हैं, उन्हें अंजाम देने के लिये सदा-सर्वदा तत्पर होना जरुरी है। तत्परता का मतलब है- काल-स्थान और भाव का औचित्य समझ, हर संभव क्रिया करना । उसे करते हुए तनिक
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