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परिग्रह-त्याग
वान के पास में सम्मिलित हो, घोर तपश्चर्या प्रारंभ की । कैसी अदभूत तपश्चर्या ! ज्ञान और ध्यान का उसने अपूर्व संयोग साध लिया। विनय और वैयावृत्य की संवादिता साध ली। लेकिन एक दिन की बात है । अचानक उसकी दृष्टि एक चिड़ा-चिडिया के जोड़े पर पड़ी। दोनों मैथुन-क्रिया का आनन्द लूट रहे थे। लक्ष्मणा के मनःचक्षू पर यह दृश्य अंकित हो गया । वह दिग्मूढ़ हो सोचने लगी: "भगवान ने मैथुन का सर्वथा निषेध किया है । वे स्वयं निर्वे दी हैं । तब उन्हें भला वेदोदय वाले जीवों के संभोग-सूख का अनुभव कहाँ से होगा ?"
जातीय संभोगसुख के अन्तरंग परिग्रह ने लक्ष्मणा साध्वी का गला घोंट दिया। मैथुन-क्रिया के दर्शन मात्र से संभोग सुख के परिग्रह की वासना जग पड़ी। परिग्रह-परित्याग के उद्घोषक साक्षात् तीर्थकर उसे अज्ञानी लगे।
पल-दो पल के पश्चात् साध्वी लक्ष्मणा सहज और स्वस्थ हो गयी। वह मन ही मन सोचने लगी: "अरेरे, मैंने यह क्या सोचा और समझा ? भगवंत तो सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी हुई नहीं है । वे सब जानते हैं और समझते हैं। वाकइ मैंने कितनी बडी मूर्खता कर कर दी और गुरुदेव के प्रति अपने मन में अशुभ चिन्तन किया....."
उसके मन-मंच पर भगवान के समक्ष प्रायश्चित करने का विचार उभर पाया । वह एक कदम आगे बढ़ी और फिर ठिठक गयी.......! "प्रायश्चित करने के लिए मुझे अपना मानसिक पाप प्रभु के समक्ष निवेदन करना होगा...। समवसरण में उपस्थित श्रोताद मेरे बारे में क्या सोचेंगे.... ? भगवान स्वयं क्या अनुभव करेंगे ? 'साध्वी लक्ष्मणा और ऐसे गंदे विचार ?' इसके बजाय तो मैं स्वयं अपने हाथों प्रायश्चित कर लूंगी।" अवसर पाकर भगवान से पूछ लँगो : "प्रभु कोई ऐसे गंदे विचार करे, तो उसका प्रायश्चित क्या है ?"
दूसरे अन्तरंग परिग्रह ने उसके मन को मथ लिया। चित्त चंचल हो उठा। माया भी अन्तरंग परिग्रह हो है । हालांकि उसने अपना पाप स्वमुख से प्रकट नहीं किया, लेकिन आज सहस्त्रावधि वर्षों के पश्चात् भी हम उसे जान पाये हैं। भला कैसे ? यह सही है कि निर्ग्रन्थ भगवान से कोई बात छिपी नहीं रह सकती । आर्या लक्ष्मणा आज भी
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