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________________ ३२० ज्ञानसार लक्ष्य होता है; 'कब इस भव सागर से पार उतर' ! उनके सारे प्रयत्न और प्रयास भवसागर से पार उतरने के लिये होते हैं, मुक्ति के होते हैं । मन, वचन, काया से वे संतरण हेतु ही प्रयत्नशील रहते हैं । हमें भी प्रात्म-संशोधन करना चाहिये । सोचना चाहिये कि यह भवसागर हमारे ठहरने के काबिल है क्या ? हमें यहाँ स्थिर होना चाहिये क्या ? कहीं भी कोई सुगम पथ है क्या? कहीं निर्भयता है ? अशांतिरहित असीम सुख है ? नहीं है। जो है, वह सिर्फ मृगजल है । तो भव सागर में स्थिर होने का सवाल ही कहाँ उठता है ? जहाँ स्वस्थता नहीं, शान्ति नहीं, सुख नहीं और निर्भयता नहीं, वहाँ रहने की कल्पना से ही हृदय काँप उठता है । जब देश का विभाजन हुआ और भारत व पाकिस्तान दो राष्ट्र बने, तब पाकिस्तान में हिन्दु परिवारों की स्थिति कैसी थी ? उनका जीवन कैसा था ? वहाँ से लाखों हिन्दू परिवार हिजरत कर भारत चले आये । जान हथेली पर रखकर सुखशान्ति और संपदा गॅवा कर । क्योंकि उन्हें वहाँ अपनी सुरक्षा, निर्भयता और सलामती का विश्वास न रहा। ___ इसी तरह जब भवसागर से हिजरत करने की इच्छा पैदा हो जाए, तब माया-ममता के बन्धन टूटते एक क्षण भी न लगेगा। इसलिये यहाँ भवसागर की भीषणता का यथार्थ वर्णन किया गया है। प्रत : शान्ति से अकेले में इस पर चिन्तन करना, एकाग्र बन कर प्रतिदिन इस पर विचार करना । जब तुम्हारी प्रात्मा भव-सागर की भयानकता और विषमता से भयभीत हो उठे, तब उसे पार करने की तीव्र लालसा जाग पडेगी और तुम मन, वचन, काया से पार होने के लिये उद्यत हो जाप्रोगे। ऐसी स्थिति में विश्व की कोई शक्ति तुम्हें भव सागर पार करते रोक न पाएगी। तैलपात्रधरो यद्वत्, राधावेधोधतो यथा । क्रियास्वनम्यचित्त : स्याद्, भवभीतस्तथा मुनि: ॥६॥१७४।। अर्थ :- जिस तरह तेल-पात्र धारण करने वाला और राधावेष साधने वाला, अपनी क्रिया में अनन्य एकाग्र चित्त होता है । ठीक उसी तरह संसारसागर से भयभीत साधु अपनी चारित्र-क्रिया में एकाग्रचित्त होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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