Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 20] [জীকালীবাসিত 3. तीर्थकरसिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना करके सिद्ध हुए वे तीर्थंकरसिद्ध हैं / जैसे इस अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव से लगाकर महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थकर, तीर्थंकरसिद्ध हैं। 4. प्रतीर्थकरसि-जो सामान्य केवली होकर सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थंकरसिद्ध हैं / जैसे सामान्य केवली। 5. स्वयंबद्ध सिद्धजो दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं ही जातिस्मरणादि ज्ञान से बोध पाकर सिद्ध होते हैं / यथा नमिराजर्षि / / 6. प्रत्येकबुद्धसिद्ध-जो किसी भी बाह्य निमित्त को देखकर स्वयमेव प्रतिबोध पाकर सिद्ध होते हैं, वे प्रत्येकबुद्धसिद्ध हैं / यथा करकण्डु आदि / यद्यपि स्वयंबद्ध और प्रत्येकबद्ध दोनों ही परोपदेश के बिना ही प्रतिबोध पाते हैं, तथापि इनमें बाह्यनिमित्त को लेकर अन्तर है। स्वयंबुद्ध किसी बाह्य निमित्त के बिना ही प्रतिबोध पाते हैं, जबकि प्रत्येकबुद्ध वृषभ, मेघ, वृक्ष आदि बाह्य निमित्त को देखकर प्रतिबुद्ध होते हैं।' स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध में उपधि, श्रुत और लिंग की अपेक्षा से भी भेद है। वैसे स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं-तीर्थंकर और तीर्थकर से भिन्न / तीर्थकर तो तीर्थंकरसिद्ध में आ जाते हैं अतः यहाँ तीर्थंकरभिन्न स्वयंबुद्धों का अधिकार समझना चाहिए। स्वयंबुद्धों के पात्रादि बारह प्रकार की उपधि होती है, जबकि प्रत्येकबुद्धों के जघन्यतः दो और उत्कृष्टतः वस्त्र को छोड़कर नौ प्रकार की उपाधि होती है। स्वयंबुद्धों के पूर्वाधीत श्रुत होता भी है और नहीं भी होता है। अगर होता है तो देवता उन्हें वेष (लिंग) प्रदान करता है अथवा वे गुरु के पास जाकर मुनिवेष धारण कर लेते हैं / यदि वे एकाकी विचरण करने में समर्थ हों और एकाकी विचरण को इच्छा हो तो एकाकी विचरण करते हैं, नहीं तो गच्छवासी होकर रहते हैं / यदि उनके पूर्वाधीत श्रुत न हो तो नियम से गुरु के सान्निध्य में मुनिवेष लेकर गच्छवासी होकर रहते हैं। प्रत्येकबुद्धों के नियम से पूर्वाधीत श्रुत होता है / जघन्यतः ग्यारह अंग और उत्कृष्टतः दस पूर्व से कुछ कम श्रुत पूर्वाधीत होता है / उन्हें देवता मुनिलिंग देते हैं अथवा कदाचित् वे लिंगरहित भी रहते हैं। 7. बुद्धबोधितसिद्ध-प्राचार्यादि से प्रतिबोध पाकर जो सिद्ध होते हैं वे बुद्धबोधितसिद्ध हैं / यथा जम्बू आदि। 1. पत्तेयं-बाह्यवृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धा; वहिष्प्रत्ययं प्रतिबुद्धानां च पत्तेयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा ते पत्तेय बुद्धा। पत्तेयबुद्धाणं जहन्नण दुविहो उक्कोसेण नवविहो नियमा उवही पाउरणवज्जो भवइ / सयंबुद्धस्स पुग्वाहीयं सुयं से हवइन बा, जइ से णत्थि तो लिंग नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ, जइ य एगविहारविहरणसमत्थो इच्छा बा से तो एक्को चेव विहरइ, अन्नहा गच्छे विहरइ / पत्त यबुद्धाणं पुश्वाहीयं सुयं नियमा होइ, जहन्त्रेण इक्कारस अंगा उक्कोसेण भिन्नदसपूज्वा / लिंगं च से देवया पयच्छइ, लिंगवज्जिमो वा हवइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org