Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: जीवाभिगम का स्वरूप और प्रकार [19 जीवाभिगम क्या है, इस प्रश्न के उत्तर में जीव के भेद बताकर उसका स्वरूप कथन किया गया है / जीवाभिगम दो प्रकार का है-संसारसमापन्नक अर्थात् संसारवर्ती जीवों का ज्ञान और असंसारसमापन्नक अर्थात् संसार-मुक्त जीवों का ज्ञान / संसार का अर्थ नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भवों में भ्रमण करना है। जो जीव उक्त चार प्रकार के भवों में भ्रमण कर रहे हैं वे संसारसमापन्नक जीव हैं और जो जीव इस भवभ्रमण से छूटकर मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं, वे असंसारसमापनक जीव हैं। संसारवर्ती जीव हों या मुक्तजीव हों, जोवत्व की अपेक्षा उनमें तुल्यता है / इससे यह ध्वनित होता है कि मुक्त अवस्था में भी जीवत्व बना रहता है / कतिपय दार्शनिक मानते हैं कि जैसे दीपक का निर्वाण हो जाने पर वह लुप्त हो जाता है, उसका अस्तित्व नहीं रहता, इसी तरह मुक्त होने पर जीव का अस्तित्व नहीं रहता। इसी तरह वैशेषिकदर्शन की मान्यता है कि बुद्धि आदि नव आत्मगुणों का उच्छेद होने पर मुक्ति होती है। इन मान्यताओं का इससे खण्डन होता है / मुक्त होने पर यदि जीव का अस्तित्व ही मिट जाता हो, अथवा उसके बुद्धि, सुख आदि प्रात्मगुण नष्ट हो जाते हों तो ऐसे मोक्ष के लिए कौन विवेकशील व्यक्ति प्रयत्न करेगा? कौन अपने आपको मिटाने का प्रयास करेगा? कौन स्वयं को सुखहीन बनाना चाहेगा? ऐसी स्थिति में मोक्ष का ही उच्छेद हो जावेगा। अल्पवक्तव्यता होने से प्रथम असंसारप्राप्त जीवों का कथन किया गया है। प्रसंसारप्राप्त, मुक्त जीव दो प्रकार के हैं-अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध / अनन्तरसिद्ध-सिद्धत्व के प्रथम समय में विद्यमान सिद्ध अनन्तरसिद्ध हैं / अर्थात् उनके सिद्धत्व में समय का अन्तर नहीं है / परम्परसिद्ध--परम्परसिद्ध वे हैं जिन्हें सिद्ध हुए दो तीन यावत् अनन्त समय हो चुका हो। अनन्तर सिद्धों के 15 प्रकार कहे गये हैं-१. तीर्थसिद्ध, 2. अतीर्थसिद्ध, 3. तीर्थकरसिद्ध, 4. अतीर्थकरसिद्ध, 5. स्वयंबद्धसिद्ध, 6. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, 7. बुद्धबोधितसिद्ध, 8. स्त्रीलिंगसिद्ध, 9. पुरुलिंगसिद्ध, 10. नपुंसकलिंगसिद्ध, 11. स्वलिंगसिद्ध, 12. अन्यलिंगसिद्ध, 13. गृहस्थलिंगसिद्ध, 14. एकसिद्ध और 15. अनेकसिद्ध / 1. तीर्थसिद्ध-जिसके अवलम्बन से संसार-सागर तिरा जाय, वह तीर्थ है / इस अर्थ में तीर्थकर परमात्मा के द्वारा प्ररूपित प्रवचन और उनके द्वारा स्थापित चतुर्विध श्रमणसंघ तीर्थ है। प्रथम गणधर भी तीर्थ है / ' तीर्थकर द्वारा प्रवचनरूप एवं चतुर्विध श्रमणसंघरूप तीर्थ की स्थापना किये जाने के पश्चात् जो सिद्ध होते हैं, वे तीर्थ सिद्ध कहलाते हैं / यथा गौतम, सुधर्मा, जम्बू आदि / 2. अतीर्थसिद्ध--तीर्थ की स्थापना से पूर्व अथवा तीर्थ के विच्छेद हो जाने के बाद जो जीव सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थसिद्ध हैं। जैसे मरुदेवी माता भगवान ऋषभदेव द्वारा तीर्थस्थापना के पूर्व ही सिद्ध हुई / सुविधिनाथ आदि तीर्थंकरों के बीच के समय में तीर्थ का विच्छेद हो गया था / उस समय जातिस्मरणादि ज्ञान से मोक्षमार्ग को प्राप्त कर जो जीव सिद्धगति को प्राप्त हुए, वे अतीर्थसिद्ध हैं। 1. तित्थं पुण चाउवष्णो समणसंघो पढमगणहरो वा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org